षोडश परिच्छेद


षोडश परिच्छेद
                कहां चले गए सब ? आंखें खोलकर हरिशंकर ने चारों तरफ देखा। सुबह हो गई थी। सूर्य उदय हो गया था। सुबह-सुबह पाव-रोटी वाले, दूध वाले, अखबार बेचने वाले इधर-उधर आ-जा रहे थे। बच्चों को लेकर स्कूल बस चली गई थी। घास-फूस से लदी एक बैलगाड़ी मंथर गति से जा रही थी अनशन मंडप के सामने से। दो-तीन साइकिल वाले भी वहाँ से चले गए। एक आदमी ने साइकिल से उतरकर नमस्कार किया हरिशंकर को, आज अनशन का चौथा दिन है, मगर अगणी और उसके आदमी चले गए। वे और नहीं लौटेंगे, कल ही हरिशंकर समझ गया था उनकी बातचीत से।
                कितना जल्दी सब-कुछ बदल जाता है। कुछ दिन पहले ही अगणी आया था नया यूनियन बनाने के लिए। हरिशंकर को अपना नेता मान लिया था। सभा-समितियों में हरिशंकर की तारीफ किया करता था वह। हरिशंकर की अगर कोई निंदा करता था, वह गुस्सा हो जाता था। जिस अगणी ने उसे जोर-जबरदस्ती कर अनशन पर बैठाया था, वहीं अगणी उसे छोड़कर भाग गया अनशन की शुरूआत से ही।
                शायद हरिशंकर की ही गलती थी। शायद अगणी ठीक था। वह प्रेक्टिकल आदमी था। शायद उसकी बातें ही सही थी। हरिशंकर इमप्रेक्टिकल हो गया था शायद। इमोशनल हो जाता था वह। या इन सारे आदर्शों का और कोई स्थान नहीं रहा, हरिशंकर सोच रहा था। पहली बार जब वह यूनियन में आया था, उस समय हेमबाबू युवा नेता थे। हरिशंकर उनका खास शिष्य था। उस समय जो आदर्श उसके मन में थे, जो समाजवाद की अस्पष्ट धारणा थी और जो लगाव था, कहां चले गए सब। यूनियन बनाना उनके लिए एक बड़ी लड़ाई लड़ने की तरह था। मगर आज ? यूनियन आज एक लाभकारी व्यवसाय बन गया है। इस व्यवसाय की दौड़-भाग में हरिशंकर थक गया था। वह और दौड़-भाग नहीं कर पाएगा। नहीं कर पाएगा।
                कल रात को पर्सनल ऑफिसर ने बुलाया था अगणी को। देशमुख साहब से बातचीत करके लौट आया था अगणी। जीत की खुशी से उसने कहा था, “हमारा काम हो गया है, नेताजी।तब तक हरिशंकर समझ गया था, क्या-क्या बातचीत हुई होगी अगणी की देशमुख के साथ। पता नहीं कैसे उसे लग रहा था, यह नितांत फार्मूले पर होने वाली बात थी। उसे याद आया उनके अनशन से पहले ही लोग भी जान गए होंगे उसके परिणाम के बारे में।
                अगणी ने जब अनशन तोड़ने का प्रस्ताव दिया और बताया कल देशमुख किस तरह जूस पिलाने आएंगे, किस तरह शोभायात्रा निकाली जाएगी, कैसे सभा का आयोजन किया जाएगा- इन्हीं सारी बातों में व्यस्त था अगणी। हरिशंकर इन सारी बातों का अभ्यस्त हो गया था। उच्च-स्वर में कहने लगा, “मैं अनशन नहीं तोड़ूंगा, अगणी।
                आकाश से गिर गया हो जैसे अगणी। अनशन नहीं तोडेंगे ? क्या कह रहे हो, नेता जी ? हमारी सारी मांगे पूरी होने के बाद भी अनशन नहीं तोडेंगे ?
                “हमारी मांगे कहां पूरी हुई, अगणी ?”
                “हमारी सारी मांगों को वे लो उच्च-प्रबंधन को भेजेंगे, बस। यह उच्च-प्रबंधन मतलब ? वे हमारी मांगों पर विचार करेंगे- इस बात की क्या गारंटी है ? विचार करने पर वे हमारी मांगे मान लेंगे- यह बात कौन कहेगा ? हम लोग बिना अनशन किए हुए सीधे ही हमारे मांग-पत्र को उच्च प्रबंधन के पास पहले ही भेज सकते थे।
                “इसके अलावा देशमुख साहब के हाथ में और क्या है ? सारी क्षमता तो उनके हाथ में नहीं है।
                “तुमने क्या देशमुख साहब के लिए अनशन किया था ? हमारी बात थी, यूनियन की स्वीकृति, है न ? किस यूनियन की मान्यता चाहिए तुम्हें, अगणी ? हमारे देश में ऐसे यूनियन है क्या, जिसके पास मैनेजमेंट का आशीर्वाद न हो ? हकीकत में, जनता का प्रतिनिधि होकर जनता की शक्ति से कौन-सा यूनियन चल रहा है, कहो ?”
                “हम लोग क्या कर सकेंगे, नेताजी ? हमें तो ऐसे ही यूनियन बनाना पड़ेगा। हमें विरोधी यूनियन को टक्कर देनी पड़ेगी।
                हरिशंकर अगणी के चेहरे की ओर घड़ी भर देखता रहा। अगणी क्या भूल गया आजादी से पहले वाले उन दिनों को ? गांधीजी के आदर्शवादी कथनों को। सत्याग्रह, अनशन को ? जीवन में  नैतिकवादी क्षमता और मोहमाया से ऊपर उठकर कुछ कर गुजरने की व्याकुलता- इन सभी को क्या भूल गया अगणीहरिशंकर कहने लगा, “मैं नहीं जानता कि तुम गांधीवाद पर विश्वास रखते हो या नहीं, मगर मैं अभी भी विश्वास  करता हूं। मुझे अभी विश्वास है, पता नहीं क्यों, गांधीवाद के सिवाय और कोई दूसरा रास्ता नहीं है। देखो, हिंसा पर आधारित राजनीति ने हमें गुलामी के सिवा क्या दिया ? पुलिस की गुलामी, मैनेजमेंट की गुलामी। गुंडे-बदमाशों की गुलामी। कहाँ चली गई जन जागरूकता की बातें ? मास-मूवमेंट की बात?
                अगणी हंसने लगा, “गांधीवाद की कहानी सुना रहे हो नेताजी, जबकि गांधीजी को इतिहास के पन्नों में खोजना पड़ता है।  गांधीजी की बात कह रहे तो नेताजी, आप सोचकर देखिए, गांधीजी के परम शिष्य नेहरू जी क्या गांधीवादी थे ? गांधी से विपरीत ध्रुव पर नहीं थे नेहरू ? विचारधारा में, चेतना में, कार्य-शैली में ! उसके अलावा, गांधीजी का हर कदम क्या कन्ट्राडिक्टरी नहीं था ? गांधीजी के यौन-विकार के बारे में, खासकर नुआखाली के सांप्रदायिक दंगों के समय उनका किसी युवती के साथ सोने की घटना को लेकर कम्यूनिस्टों ने जो बवाल किया था, आपको याद होगा ? उस समय क्या गांधीजी ने उस बात का खंडन किया था ? या उनके पक्ष से किसी ने ? न नेहरू ? न कांग्रेस ? यहीं है आदर्शवाद नेताजी। किंवदंती है गौतम बुद्ध ने जीवन के अंतिम काल में सूअर का मांस खाया था, यह बात गलत भी हो सकती है। मगर इतिहास साक्षी है- प्रत्येक आदर्शवाद की अंतिम परिणति होती है अपने दर्शन के विरुद्ध आचरण करने की।
                हरिशंकर कुछ नहीं कह पाया। तर्क-वितर्क में वह शुरू से ही कमजोर था। गांधीवाद और गांधीजी के निंदक हमेशा से रहे हैं। हरिशंकर इतना बड़ा गांधीवादी कभी भी नहीं था। वह केवल हेमबाबू को अपना आदर्श मानते आया था आज तक, नाम-मात्र गांधीवादी था, मगर कभी भी गांधीवादी आदर्शों को नहीं मानता था। मगर इस समय पता नहीं क्यों उसे लग रहा था गांधीवादी ही यथार्थ मार्ग है। उसे छोड़कर दूसरा कोई मार्ग नहीं। यह हरिशंकर का विश्वास था। उसे भीतर से कोई प्रबलता से नियंत्रित कर रहा था हरिशंकर को, अनशन नहीं तोड़ने के लिए।
                हरिशंकर ने कुछ भी नहीं कहा, चुपचाप सोता रहा और अगणी भी। धीरे-धीरे यूनियन की कमेटी के मैंबर आने लगे थे। हरिशंकर आंखें बंद कर सोता रहा। बहुत कमजोरी लगने लगी थी उसे। मुंह सूखा जा रहा था। होठों की चमड़ी फटने लगी थी। उसे पहले एक दो दिन भूख-प्यास लगी थी। अभी और भूख प्यास नहीं सताती थी उसे। मानो भोजन करना भूल गया हो बहुत दिन से। उस के भीतर रह रही हो एक अपूरणीय शक्ति, जिसके सहारे वह जिंदा रह पाएगा बहुत दिनों तक। हरिशंकर सुन पा रहा था, अगणी की आवाज, नेताजी, नेताजी। अगणी की पुकार आ रही थी जैसे किसी बहुत दूर जगह से। आंखें खोलने की इच्छा नहीं हो रही थी उसकी। क्या कहेगा वह ? उसे युक्ति करना नहीं आता है। वह इतने वाक्-चतुरों से मुकाबला नहीं कर पाएगा। वह जो समझा, वह समझा। उसका शरीर वश से बाहर होने लगा था। जैसे कि एक काला बादल नीचे की ओर उतर रहा हो उसकी तरफ। जीभ भीतर घुसने लगी थी मुंह में। नहीं, उसे लड़ने के लिए तैयार होना पड़ेगा। बहुत हो गया, और नहीं। सारा जीवन व्यर्थ चला गया। शेष जीवन में उसकी किसी क्षमता या उसके अर्थ का क्या दरकार है। जीवन का कोई न कोई उद्देश्य होना चाहिए।
                अनशन नहीं तोड़कर क्या कर लेगा हरिशंकर ? किसके लिए अनशन कर रहा है तब वह ? क्या चाहता है वह ? हरिशंकर को पता नहीं, वह क्या चाहता है। हाँ, यह बात सत्य है। इस अनशन में आत्म-समीक्षा करेगा हरिशंकर। इस अनशन में वह खोज लेगा इस अनशन का कारण। शायद यह अनशन उसकी आत्म-शुद्धि के लिए है। इतने दिनों तक यूनियन के नाम पर उसने जितनी भाग-दौड़ की, उसके पश्चाताप और अनुशोच के लिए यह अनशन है हरिशंकर का। हो सकता है यह अनशन जन-जागृति के लिए था। शायद यह अनशन जनता के मन परिवर्तन के लिए था। हमारे वर्तमान जनमानस के पटल पर नैतिकता का अवमूल्यन इस कदर हो गया है कि हर अनैतिक काम भी न्यायोचित लग रहा है, शायद इन मूल्यों के खिलाफ हरिशंकर का अनशन। हरिशंकर ने अभी भी दृढ़-निश्चय नहीं किया है। वह क्या कन्फ्यूज् है ? उसे पता नहीं, शायद नहीं। शायद अभी भी वह शिशु है। बहुत कुछ जानना अभी भी बाकी है। बहुत कुछ सीखना  अभी भी बाकी है। शायद यहीं से शुरू होगा उसकी राजनीति का नया पाठ। आंखें बंद कर पड़ा हुआ था हरिशंकर, अगणी की आवाज को अनसुनी कर। उसे काफी कमजोरी महसूस हो रही थी। दो-तीन दिनों से अच्छी तरह नींद नहीं आई थी, मच्छरों के काटने की वजह से,लोगों की चहल-पहल से। आंखों की पलकें बंद होती रही थी। ऐसे पड़े-पड़े, पता नहीं कब, हरिशंकर को नींद आ गई। अचानक झटके के साथ उसकी नींद खुल गई और उसने देखा, वहाँ पर कोई नहीं था। अनशन का मंडप पूरी तरह खाली था। रात के कितने बजे होंगे ? किस समय सो गया था हरिशंकर ? अगणी, लोगों ने अनशन तोड़ दिया ? प्रॉडक्शन और वर्कशॉप के सेक्शन मित्रभानू अथवा चंद्रशेखर भी नहीं हैं। रात के पहरेदार भी नहीं आए। सभी लोग इसका मतलब हरिशंकर को अकेले छोड़कर चले गए ?
                हरिशंकर को बहुत असहाय लग रहा था। थोड़ा भय भी। जैसे आगे धू-धू रेगिस्तान और उसका कारवां उसे छोड़कर कहां चला गया। दूर-दूर तक जिधर देखता है, उस चारों तरफ केवल नजर आता है रेगिस्तान और बीच में वह अकेला, केवल एक अकेला हरिशंकर ही।
                चाँदनी रात में कहीं गोरखपुरी लोग मिलकर भजन गा रहे थे। उनके भजनों में एक अद्भुत मिठास थी। हरिशंकर उठकर खड़ा हो गया। उसे अस्थिर-सा लगने लगा। क्या करेगा वह अब? छोड़कर भाग जाएगा वह ? कल उठकर किसको चेहरा दिखा पाऊँगा ? और क्या वह अकेले अनशन कर पाएगा ? अकेला आदमी, जिसके पीछे कोई यूनियन नहीं होगा। न जनता होगी, न श्रमिक। ऐसे अनशन चलाकर वह क्या कर लेगा ? कल कोलियरी में चारों तरफ खबर फैल जाएगी कि हरिशंकर पटनायक पागल हो गया है। लोग उसे देखने आएंगे, चिड़ियाघर के किसी जानवर की तरह। देखेंगे, कानाफूसी करेंगे और हंसेंगे वे लोग।
                हरिशंकर ने सोचा था, उसके पीछे एक संगठन है। कम से कम उसके यूनियन के तीस लोग साथ में हैं। उसने सोचा था, यही उसका यूनियन है। उनके भरोसे पर वह लड़ेगा। जनता को प्रभावित कर उन्हें यूनियन राजनीति के बारे में सोचने पर मजबूर करेगा, हमारी नैतिकता के अवमूल्यन के बारे में। शायद यही तो हरिशंकर की गलती थी। उसका कोई यूनियन नहीं है, उन्हें कोई अधिकार नहीं मिला है इस लड़ाई का, वह तो एक निमित्त मात्र था, इस समय में वह अच्छी तरह समझ गया था।
                तो क्या वह उठकर चला जाएगा? और अगणी को कहेगा, “जो हो गया, सो हो गया। अब मैं तुम्हारे साथ हूँ।इसके बाद यूनियन छोड़ जाकर चुपचाप बैठ गया हरिशंकर ? अपने परिवार को लेकर, पागल पत्नी, बूढ़ी मां, बर्बाद हो रहे बच्चों को संभालेगा ? नौकरी करेगा दस बजे से पांच बजे तक पारबाहार कोलियरी में किसी भी जगह वह और नहीं रहेगा ?
                बहुत अच्छा था हरिशंकर, हेमबाबू से दूरी बनाकर, राजनीति भूलकर हिरण पाल रहा था हरिशंकर। अचानक क्या हो गया था उसे ? क्यों यूनियन राजनीति में घुस गया वह ? क्या किसी क्षमता के लिए ? पर मर्यादा के लिए ? धन-सम्मान के लिए ?बहुत दिनों से कुछ करने की सोच रहा था हरिशंकर। मगर यूनियन ? हिंसा पर आधारित राजनीति ? मैनेजमेंट की चमचा यूनियन बनाने का कोई लाभ है ? ऐसी यूनियन बनाकर केवल लोगों को ठगना, मैनेजमेंट का पालन-पोषण करना और अपने लिए दो पैसे कमाने के सिवाय देश का क्या भला होगा ?
                जनता सब-कुछ जानती है। वह अब और राजनेताओं पर विश्वास नहीं करती है।वह अब यूनियन नेताओं के साथ नहीं है। यूनियन वालों के बारे में भी ऐसा ही सोचती है। जबकि अपने समसामयिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए पास आकर विनम्र होकर समर्थन देने का नाटक करती है। हरिशंकर चाहता था, एक नया यूनियन खड़ा करने के लिए। सारी जनता के मतों पर आधारित यूनियन। वह हेमबाबू को दिखा देगा, कि जनता के बारे में उनकी धारणा कितनी गलत है और लीक से हटकर है। मगर शायद जनता खुद भूल चुकी थी अपना मूल्य-बोध। अगणी ने जिस तरह कहा, गांधी को इतिहास में खोजना पड़ता है उनकी अहिंसा, सत्याग्रह भी बेकार हो गए हैं शायद। जनता चाहती है आतंक, कोड़े की मार, कड़ा-शासन, इमरजेंसी। शायद हमारा ही देश अनुशासनहीन है। अन्यथा यहां पर सही समय पर ट्रेन चलाने के लिए भी इमरजेंसी लागू करनी नहीं पड़ती। दूधवाला दूध में पानी मिलाना अपना नैतिक अधिकार नहीं समझता। रिश्वत नहीं खाने वाला आदमी अपने आपको बेकार नहीं समझता।
                हरिशंकर के पास उसी समय आया रात की डयूटी पर तैनात कांस्टेबल। अनशन के दिन से उसे यहां पर डिपुट किया गया है पुलिस की ओर से। उसकी सुरक्षा के लिए। आकर पूछने लगा, कोई कहीं पर नहीं है ? क्या हुआ, नेताजी ? बाकी लोग कहां चले गए।
                हरिशंकर ने उसका जवाब नहीं दिया। वह कहने लगा, “बैठो, जरा। तुम क्या-क्या पूछना चाहते हो ?कहो, तुमने कभी जनता के बारे में सोचा भी है ?”
                कान्सटेबल हंसने लगा। हंसते-हंसते उसने कहा, “सच कहूं तो,आपकी तरह हमारा काम भी जनता से है। और इससे भी ज्यादा आश्चर्य की बात है, आपके साथ हमारा काम बहुत मेल खाता है। खासकर जनता की धारणा के बारे में। जनता ने सोच रखा है, कि पुलिस और राजनेता, दोनों ही पैसा खाते हैं, झूठ बोलते हैं और प्रशासन और सत्ता के आगे अपने आपको बेच देते हैं।
                “यही तो जनता की धारणा है, तुम्हारे और हमारे बारे में। मगर तुम जनता के बारे में क्या सोचते हो ?”
                कांस्टेबल कहने लगा, “सच कहूं तो, अभी तक मेरी जनता के बारे में वैसी कुछ सटीक धारणा नहीं है। देखिए, सांप्रदायिक दंगों में जिन लोगों ने लूट-पाट की, वे लोग ही फिर शांति समिति बनाते हैं वे लोग ही शांति-शृंखला की रक्षा करने के लिए पुलिस पर व्यर्थ अभियोग लगाते हुए  शोभायात्रा निकालते हैं। कहिए, इसमें से जनता का कौन-सा असली चेहरा है ? कौन-सा चेहरा आप चुनेंगे इनमें से ? शायद जनता ही ऐसी है। भेड़ की तरह, जहां कहा जाएगा, वहां चली जाएगी। शायद जनता का अपना कोई विवेक नहीं है, सोच-समझ नहीं है। जनता मानो पानी का स्रोत हो। फिर हेमबाबू ? वैसा ही दृष्टिकोण, वैसा ही तजुर्बा। तब तो हेमबाबू ही सही हैं ? जनता के बारे में और सिर खपाने की कोई जरूरत नहीं है। हरिशंकर जानता है, वह विरोध नहीं कर पाएगा। तर्क-वितर्क नहीं कर पाएगा। जनता ऐसी नहीं है, ऐसा नहीं होना चाहिए केवल इतना ही कह सकते  है। वह नहीं जानता है, किस तरह इस धारणा को बदला जाए। वह नहीं जानता है किस तरह बदला जाए जनता को, उसकी मति-गति को। शायद अनशन ही एकमात्र सही रास्ता है। शायद ऐसे अनेक लोगों को अनशन करने की जरुरत पड़ेगी। आज नहीं, मगर किसी न किसी दिन परिस्थिति बदल जाएगी। जनता अपने आपको बदल देगी। अपने मूल्य-बोध, अपनी नैतिकता पहचान जाएगी। तब तक किसी न किसी को कहीं न कहीं पर ऐसे अनशन करना उचित है। ऐसे ही उद्देश्य से शुरू होना चाहिए सत्याग्रह का आंदोलन।
                किसने क्या किया, क्या नहीं किया, हरिशंकर क्यों सोचेगा? उसका यह अनशन सफल होगा अथवा नहीं, यह भी सोचने की जरूरत पड़ेगी ? शायद यह अनशन भी व्यर्थ जाएगा। गाँधी जी के अनशन से क्या बंद हो गए थे सांप्रदायिक दंगे या भारत-विभाजन। गांधीजी के बाद और भी हजारों गांधियों को बाहर निकलना उचित था। जब कोई भी बाहर नहीं निकला तो हरिशंकर क्यों निकलेगा, ऐसी बात है ? हरिशंकर कमर सीधी करने के लिए फिर से लेट गया दरी पर। कांस्टेबल पूछने लगा, “बाकी लोग कहां गए, नेताजी ?”
                “वे लोग अनशन नहीं करेंगे ?”
                “क्यों नहीं करेंगे ?”
                “उन्होंने जो चाहा था, वह उन्हें मिल गया।
                “और आप ?” कांस्टेबल को कुछ भी समझ में नहीं आया। हरिशंकर ने कुछ नहीं कहा। केवल आंखें बंद कर ली। क्या उसका कुछ जवाब देना उचित नहीं था ? यह कांस्टेबल भी तो जनता का ही एक अंश है। उसे तो समझाने की जरूरत है, हरिशंकर के अनशन नहीं तोड़ने का उद्देश्य। मगर हरिशंकर ने तो कुछ भी नहीं कहा, चुपचाप रहा। क्या वह जनता से दूर तो नहीं जा रहा है?जनता के लिए लड़ाई करने वाले हरिशंकर को जनता से दूर चले जाना का कोई औचित्य है क्या ? फिर भी हरिशंकर ने कुछ नहीं कहा।
                कुछ कहने की इच्छा भी नहीं हो रही थी उसकी। इतनी सारी बातें इतनी सारी युक्तियां, इतने सारे उदाहरणों का उत्तर देना क्लांतिकर है। वह नहीं कर पाएगा। वह बिलकुल भी अपने सीने में छुपे वक्तव्य को भाषा में प्रकाशित नहीं कर पाएगा। वह चुप रहा। दरी पर सोता रहा पैर पसारकर, दोनों हाथों की सिर के नीचे संधि बनाकर, बंद आंखों से, कांस्टेबल के सारे सवालों की उपेक्षा करते हुए।
                कुछ समय के बाद कांस्टेबल ने कहा, “आप सोते रहिए, नेताजी, मैं एक चक्कर घूमकर आता हूं।कहकर चला गया, सो चला गया। सारी रात में और एक बार भी नहीं लौटा। हरिशंकर अकेले सोए हुए पड़े  थे पंडाल में, मच्छरों की काट को सहन करते हुए। रातभर नींद नहीं आई थी। दूर से सुनाई पड़ने वाले गोरखपुरी भजन बंद हो गए थे। चांद डूब गया था। ट्रेन की आवाज, कुत्तों के भौंकने की आवाज, दूर कॉलोनी में पहरा दे रहे बहादुर लोगों की व्हिसिल की आवाज और झींगुरों की आवाज सुनते तारों से भरे आकाश को देखते-देखते सारी रात बिता दी थी उसने।
                और अब सुबह हो गई थी। धूप निकलने लगी थी। हरिशंकर का गला सूख गया था। क्या वह पिएगा पानी ? तोड़ देगा अनशन ? इतने सारे लोगों के साथ उसे भूख-प्यास मालूम नहीं पड़ रही थी। अब अकेले होने पर असहाय लगने लगा था अनशन। हरिशंकर अभी तक सोच नहीं पाया कि उसे अनशन तोड़ना चाहिए या नहीं। उसका सिर चकरा रहा था। चिंता सताने लगी थी। अगणी की बात सोचकर वह ध्रुव खटुआ या हेमबाबू के पास चला जा रहा था। हेमबाबू की बात सोचते-सोचते संन्यासी पिताजी के जटायुक्त चेहरे की पास पहुंच जा रहा था। वह आंखें खोलकर देख नहीं पा रहा था, मगर वह सोया भी नहीं था। वह स्पष्ट देख पा रहा था अपने अतीत से वर्तमान तक सारा कुछ। गांव का रास्ता। शाम का समय। हरिशंकर देख रहा था एक दाढ़ी वाले आदमी को, जो कि उसके पिताजी थे। कह रहे थे, “बड़ा होने पर तुम मुझे पक्का समझ पाओगे। मुझे विश्वास है, तुम मुझे माफ कर दोगे उस समय। तुम्हारी माँ के प्रति मैंने कभी न्याय नहीं किया। उसे सुखी रखना।
                ढलती शाम के अंधेरे में गांव के रास्ते के किनारे हरिशंकर को अकेले छोड़कर एक संन्यासी हरे-भरे खेत के भीतर चला जा रहा था और हरिशंकर अकेले खड़ा है, एकदम अकेले। उसकी पीठ पर किसी ने हाथ मारा। हरिशंकर ने पीछे मुड़कर देखा। ध्रुव खटुआ। हंस रहा है, यूनियन का मजा मिल गया, नेताजी ?
                ध्रुव खटुआ का चेहरा अचानक हेमबाबू के चेहरे में बदल जा रहा है। अजस्र पान खाने और हमेशा पीकर रहने वाले हेमबाबू कह रहे हैं, “मैं तुम्हारी जनता के हेयर की केयर नहीं करता हूं। जनता इज माई फुट।
                हरिशंकर साइकिल के पैडल मारते हुए जा रहा था। किधर ? जी.एम. ऑफिस जल्दी जाना होगा? ग्यारह बज गए थे। घोष बाबू इधर-उधर की बातें सुनाता है। उसके पीछे मां दौड़ती आ रही है- हरि, हरिया, अरे बाबा, हरिशंकर। मुझे कुछ पैसे दे। घर में चावल नहीं है। मैं वरा सिंघाडा खाऊँगी। याद नहीं है तुझे, मैंने अपने गहने गिरवी रखकर तुझे बीस रुपए दिए थे तुम्हारी नौकरी लगने से पहले ?
                “नेताजी, नेताजी।
                हरिशंकर सपने देख रहा था क्या ? वह तो सोया नहीं था। केवल आंखें बंद थी उसकी। किसी की आवाज सुनकर आंख खोलकर देखने लगा। आह! आंखें खोलकर देखने में कष्ट हो रहा था उसे। सारी धरती तेजी से घूम रही है क्या ? हरिशंकर ने बहुत कष्ट के साथ देखा, “माइक वाला आया हुआ है।कहने लगा वह, “माइक को ले जा रहा हूं नेताजी।
                हरिशंकर ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। एक बार फिर आंखें बंद कर ली उसने। उसके बाद आएंगे टेंट खोलने के लिए टेंट हाऊस के लोग। पांडाल खाली हो जाएगा। खुले आकाश के नीचे हरिशंकर खड़ा रहेगा ? उसे चारों ओर से घेरे होंगे, पारबाहार कोयला खदान के लोग और हंस रहे होंगे। जोर-जोर से हंस रहे होंगे वे सभी। जैसे कि इतना मजेदार दृश्य उन्होंने कभी भी नहीं देखा होगा।
                हरिशंकर ने फिर से सारे योगसूत्र खो दिए जैसे यह कौन-सा शहर है ? इतने लोग, इतनी भीड़। यह किसी की सभा है ? या रथ यात्रा है ?इतनी भीड़-भाड़ में सभी लोग कहाँ किधर जा रहे हैं ? उसके भीतर धकेलते हुए एक बाबाजी ने उसकी ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा, “हरि रे बेटा हरिशंकर। मैं कुंभ के मेले में आया था, अच्छा हुआ तुम मिल गए। तुम्हारी बातें मुझे बहुत याद आती हैं। तुम्हारे प्रति मैं उचित न्याय नहीं कर पाया, बेटे।
                हरिशंकर ने अपना हाथ आगे बढ़ाया। मगर वह उस हाथ के पास नहीं पहुंच पाया। कहां चला गया बाबा जी का वह हाथ ? वह बाबा जी ? भीड़ धकेलती जा रही थी हरिशंकर को। कहां जा रहा है हरिशंकर? कहां आया था वह कोई उसे उड़ाकर ले जा रहा था क्या ? गिद्ध की तरह किसी ने झपटकर पकड़ लिया था ? नहीं जिसने ऊपर खींचा है, वह है देशमुख साहब। कह रहे हैं, “आइए, नेताजी। मि. मिरचलानी हेलिकॉप्टर में बैठे हैं। आंख खोलकर देख रहा था हरिशंकर, ऊपर हेलिकॉप्टर। दरवाजे के पास घात लगाकर बैठे हुए थे घोष बाबू। एक रस्सी लेकर झूलते हुए आ रहे हैं देशमुख साहब, हरिशंकर को उठाकर ले जा रहे हैं। नीचे जनता, चारों तरफ जनता। कुंभ मेले की जनता ? इतनी भीड़ तो पुरी में देखी थी उसने। रथयात्रा के समय। भीड़ के भीतर दिखाई दे रहे थे उसे फर्गुसन साहब हाफ पैंट पहनकर सिर पर सोला टोपी पहन कर व्हिसिल बजा रहे थे। घोष बाबू हेलिकाप्टर से चिल्ला रहे थे- आज भी आप देर से आए, नेताजी ?
                हरिशंकर को कौन खींच लाया उस दृश्य के भीतर से ? आंखें खोलकर देखने लगा हरिशंकर। यह ओमप्रकाश ? हाँ, शायद ओमप्रकाश। कुछ कहने की कोशिश कर रहा था हरिशंकर। उसे बहुत प्यास लग रही थी। उसकी जीभ मोटी हो गई थी। नहीं, वह पानी नहीं पिएगा। वह अनशन जारी रखेगा। आमरण अनशन। वह बिलकुल पानी नहीं पिएगा। वह अनशन नहीं तोड़ेगा। कभी भी नहीं। ओमप्रकाश कहने लगा, “आपकी तबीयत ठीक नहीं है, नेताजी ?”
                हरिशंकर और सुन नहीं पाया ओमप्रकाश की बात जैसे बहुत दूर से सुनाई पड़ रही हो वह आवाज। सभी तो छोड़कर चले गए थे, ओमप्रकाश क्यों आया है ? वह टेंट खोलने आया है क्या ? ओमप्रकाश हरिशंकर के कान के पास मुंह ले जाकर कहने लगा, “वे लोग आपको छोड़कर चले जा सकते हैं नेताजी। मैं नहीं छोड़ पाऊंगा। आप हमारे लीडर हैं। आप धैर्य रखिए, हम नया यूनियन बनाएंगे। मेरा विश्वास है, पारबाहार कोलियरी के सारे लोग हमारे यूनियन का समर्थन करेंगे।
                हरिशंकर ने आंखें बंद कर ली। आहः शांति, ओमप्रकाश तो है। वह अकेला नहीं है। अकेला नहीं है। उसके पीछे एक आदमी तो है। उसे लग रहा था, जैसे गांव के मुहाने पर खड़ा हुआ हो शाम के समय। शरीर पर धारण किया हुआ सन्यासी का वेश। बढ़ी हुई दाढ़ी। ओमप्रकाश को कह रहा है- तुम बड़े होकर समझोगे, मैं क्या कह रहा था। उस समय निश्चय इमप्रेक्टिकल कहकर मुझे दोषी नहीं ठहराओगे।”
                ओमप्रकश को गांव के मुहाने पर खड़ा कर कहते हुए, अंधेरे में चला गया वह हरे-भरे खेतों के अंदर। अचानक हरिशंकर को बहुत शांति लगने लगी। और सीने के भीतर हूक नहीं उठ रही थी। इतन शांति, शांति। इतने लोग कहां से ? अरे, यह तो बड़ी शोभायात्रा है। इतनी बड़ी शोभायात्रा और हरिशंकर जिसका नेतृत्व कर रहा हो। हरिशकर ने पीछे मुड़कर देखा। उसके पीछे चल रही थी विशाल जनता। पूरी पारबाहार कोलियरी के सारे लोग उठकर आ गए। इतनी बड़ी शोभायात्रा तो हरिशंकर ने कभी देखी तक नहीं थी। हरिशंकर स्पष्ट देख पा रहा था, हेमबाबू भी, ध्रुव खटुआ भी अगणी भी। यहां तक कि देखमुख साहब, फर्गुसन साहब, मिरचलानि सभी भाग ले रहे थे उस शोभा-यात्रा में। आह, कितने छोटे-छोटे बच्चे, कितने उत्साह से चल हे थे। जैसे पहले प्रभात-फेरी हुआ करती थी स्कूल बच्चों की। कितना उत्साह था बच्चों में। कोई रामधुन गुन गा रहा था ? हरिशंकर का सबसे प्रिय गीत। उसका रिकॉर्ड नहीं मिल पा रहा था आजकल ? कौन खोजकर ले आया वह रिकॉर्ड ?
                हरिशंकर को आत्म-तृप्ति से सांस छोड़ते समय उसे याद हो आई ओमप्रकाश की बात। कहाँ है ओमप्रकाश ? अपना टूटा पैर लेकर, इतना मोटा प्लास्टर लेकर चल पा रहा था इस शोभा-यात्रा में ? कहां है वह ? हरिशंकर उच्च-स्वर में बुलाने की कोशिश करने लगा ओमप्रकाश, ओमप्रकाश, कहाँ हो तुम ?”
                भीड़ में अपनी आवाज भी नहीं सुन पा रहा था वह। ओमप्रकाश कहां ? किसी ने उत्तर नहीं दिया। हरिशंकर चिल्लाने लगा- बंद करो। बंद करो यह शोभा-यात्रा। बताओ, ओमप्रकाश कहां है ?”
                भीड़ उसे धकेलते हुए चली गई। शोभायात्रा के आगे हरिशंकर। उसके नियंत्रण से बाहर थी शोभायात्रा। भीड़ धकेलते हुए ले जा रही थी हरिशंकर को। किसी ने तेज वोल्यूम में बजाना शुरु किया- रामधुन। उसकी आवाज में हरिशंकर की आवाज दब कर रह गई। भीड़ के धक्के से आगे फेंका गया हरिशंकर। भीड़ चिल्लाने लगी- जय बोलो, जय।
                देशमुख और डॉक्टर साहब झुककर देख रहे हरिशंकर को। अनशन के पांडाल में लोगों की भीड़। दूर में दो तीन जीपें खड़ी थी। सभी कानाफूसी कर रहे थे। भीड़ को हटाते हुए थाना ऑफिसर आगे आ रहे थे। देशमुख साहब डॉक्टर से कह रहे थे- किसी भी तरह इनको बचाना पड़ेगा डॉक्टर किसी भी तरह।"
                डॉक्टर ब्लड-प्रेशर यंत्र समेटकर रखते हुए फिर एक बार फिर नाड़ी देखने लगे। उनका चेहरा गंभीर हो गया था। कहने लगे देखता हूँ, कोशिश करता हूँ। फिर भी आशा बहुत कम ही है।
               


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