पन्द्रह परिच्छेद


पन्द्रह परिच्छेद
                देशमुख साहब ने उन्हें बैठने के लिए कहा। प्रद्युम्न के दोनों पाव कांपने लगे। थोड़े-थोड़े भय से, उत्तेजना से या दुर्बलता से ? देशमुख साहब बड़े खतरनाक ऑफिसर है, सुना था उसने। यह आदमी डिप्टी सी.एम.ई॰ का चार्ज पाने से पहले अत्यंत शांत और निरीह थे। मगर डिप्टी सी.एम.ई॰ होने के दिन से पूरी तरह बदल गए थे। बड़े-बड़े ऑफिसर भी उनका नाम सुनने से डर जाते थे। जितना भी बड़ा हो, कहीं देख लेने से गुस्से से ऐसे देखते थे कि उनके सामने टिकना मुश्किल हो जाता था। लोग कहते हैं, कोलियरी में हर जगह देशमुख साहब ने गुप्तचर रखे हुए हैं। कहां क्या हो रहा है, सारी खबरें उनके पास पहुंच जाती थी। देशमुख साहब डिप्टी सी.एम.ई॰ बनने के बाद से ऑफिस के नियम-कानून काफी बदल दिए थे। पहले ऑफिस के समय पास के मार्केट में, पोस्ट-ऑफिस में घुमने वाले तथा चाय पीने बाहर जाने वाले क्लर्क लोग ऑफिस से बाहर निकलने का नाम नहीं लेते थे। अंडर-मैनेजर लोग पहले अंडरग्राउंड नहीं जाते थे, अभी वे लोग ऊपर रहने का साहस नहीं जुटा पाते थे। टिम्बर कुली या ड्रेसर लोग अपना काम खत्म करके दो-तीन घंटे पहले घर लौट जाते थे मगर अभी सभी को आठ घंटे रहना पड़ता है। माइनिंग सरदार भी अपने हाथ से ब्लास्टिंग करने लिए बारूद भरते थे। ऐसे ही बहुत सारे परिवर्तन हो गए थे कुछ ही दिनों में प्रद्युम्न को खबर मिली थी। आज वही खतरनाक देशमुख साहब हंसते हुए नमस्कार कर बैठने के लिए कह रहे थे।
                बहुत कमजोरी लग रही थी प्रद्युम्न को। वह अनशन के दौरान केवल पानी पीता था। अगणी  काका और हरिशंकर ने इसके लिए अनुमति दी थी। पहले-पहले अनशन की बात सोचने से वह नर्वस अनुभव करता था। अगणी काका ने जब घर में आकर कहा था कि वह और प्रद्युम्न अनशन पर बैठेंगे, यूनियन मीटिंग में तय हुआ था। काकी ने लंकाकांड किया था उस समय। एक और झुनु ने काकी का साथ दिया था। मगर उसका कुछ लाभ नहीं हुआ और अनशन शुरु करने से पहले सुबह चार बजे काकी और दोनों लडकियों ने मिलकर पर्याप्त खाना खिला दिया था प्रद्युम्न और अगणी काका को जबरदस्ती से।
                गांव में खाने-पीने के मामले में प्रद्युम्न पूरी तरह से अलग लड़का था। वह कभी भी ज्यादा नहीं खाता था। उसके खाने पीने का ठीक समय भी नहीं था। उठते-बैठते कटोरी भर सब्जी या थोड़ा नारियल का चूरा, दो लड्डु, थोड़ा मिक्सचर और कुछ भी नहीं मिलने पर आधा कटोरी पखाल-भात खाकर चला लेता था और हर बार, जितना वह खाता नहीं था, उससे ज्यादा थाली में छोड़ देता था, जिस वजह से भाभी विरक्त हो जाती थी।
                प्रद्युम्न के साथ भाभी का खाने-पीने के मामले को लेकर शीतयुद्ध चलता था। उसके बार-बार, खाना मांगने को भाभी पसंद नहीं करती थी। उस पर वैसे भी उसकी ननदें खाना परोसने में पक्षपात का आरोप लगाती थी। कभी-कभी प्रद्युम्न को उसकी बहिनें खाना परोस देती थी और कोई नहीं मिलने पर वह रसोई अगर खुद अपने हाथ से ले लेता था। इतनी शुचिता रखने वाली माँ, जो रसोई-घर के ईशान कोण में कुल-देवी का वास मानती थी, बिना साफ धुले कपड़े पहने रसोई-घर में घुसने नहीं देती थी। प्रद्युम्न की इस खराब आदत को बर्दाश्त कर लेती थी स्नेह और ममता के कारण।
                वही प्रद्युम्न अनशन पर बैठ गया, इस पारबाहार कोलियरी के जी.एम. ऑफिस के सामने। पहले-पहले उसे नर्वस लग रहा था। वह क्या भूख सहन कर पाएगा ? कहीं बेहोश तो नहीं हो जाएगा ? अगर मर गया तो ? पहली बार अनुभव किया प्रद्युम्न ने कि जीवन से उसे बहुत प्यार था। अब तक यह अनुभूति नहीं पाया था। बहुत सारी जानकारी होने के बाद भी खुद पर निभाना होगा, अनेक सुख दुख उसे भोगने होंगे। इस समय इस आदर्श के लिए, यूनियन के लिए उसे प्राण त्याग करना पड़ेगा ?
                अगणी काका ने उसे एकांत में बुलाकर कहा था, बाबू, तुम्हें मैं अनशन पर जबरदस्ती इसलिए बैठाया हूँ कि मैं चाहता हूँ इस कोलियरी में तुम्हारा फिगर बनाना। देखो, अनशन पर बैठने के बाद मैनेजमेंट, जैसे भी हो, हमारे साथ रफा-दफा करना चाहेगा। उस समय कुछ हो न हो, तुम्हारी मांग, तुम्हारी समस्या तो उन्हें  समझा देंगे। दूसरी बात, अनशन पर बैठने के बाद तुम भी नेता बन जाओगे। मैनेजमेंट तुम्हारी मांग या समस्या की बात नहीं मानेगा तो भी यह निश्चित है तुम्हें और जबरदस्ती गाड़ी नहीं भरनी पडेगी।
                अगणी काका की दूरदर्शिता व विलक्षणता से आश्चर्यचकित था प्रद्युम्न। अपने गांव में उसने अगणी  होता को दूर से देखा था। बहुत मिलनसार और बातचीत करने में माहिर थे अगणी होता। बात करते समय हकलाते थे वह, आधे शब्द वह गटक जाते थे। उनके व्यक्तित्व का तारतम्य था कहीं न कहीं। वह बाहर से बिलकुल सीरियस नहीं दिखाई देते थे। इस पारबाहार कोलियरी में कुछ बदनामी भी थी उनकी, छत्तीसगढ़ की एक रखैल थी उनकी। वह खूब पीने वाले थे और सबसे ज्यादा दुर्नाम है उनका औरतबाज होने का। काकी बहुत चंडी और उनकी दोनों लड़कियां उद्द्ण्डि, जिनके चरित्र के बारे में कोलियरी के लोगों के अच्छे विचार नहीं थे। जबकि अगणी काका को राजनीति में एक अलग आदमी के रुप में पहचानता था प्रद्युम्न। भाषण देते समय वह नहीं हकलाते थे, सबसे ज्यादा आश्चर्य की बात थी। वह अपने फैसले लेने में तत्पर और उनकी दूरदर्शिता की हरिशंकर जैसे आदमी भी तारीफ करते थे।
                उनके परामर्श पर ही अनशन में बैठा था प्रद्युम्न। पहले दिन सबसे आश्चर्य की बात थी, पहले दिन उसे भूख नहीं लगी थी। दूसरे दिन थोड़ी-थोड़ी भूख लगी थी, मगर संभाल लिया था प्रद्युम्न ने। उसके बाद तीसरे, चौथे और पांचवें दिन बिलकुल भी भूख नहीं लगी थी उसे। बिना खाए-पिए वह रह पा रहा था- यह उसके लिए सबसे ज्यादा आश्चर्य की बात थी। उसे केवल परेशानी हो रही थी, बोर होने के साथ उसकी शारीरिक कमजोरी से । ताजे से पुराने सारे अखबार पढ़ने के साथ-साथ अपने पास कुछ किताबें जैसे पारबाहार कोलियरी का स्टैंडिंग-ऑर्डर से लेकर नेशनल कोल मजदूर संगठन के संविधान तक पढ़कर  मुखस्थ कर लिया था उसने। पहले-पहले हर शिफ्ट की शुरुआत में उत्साही दर्शकों को अगणी काका का ज्वालामयी भड़काने वाला भाषण धीरे-धीरे जमने लगा था। वह भी किस तरह दुर्बल और निस्तेज हो गया था। मगर प्रद्युम्न को बिलकुल कुछ भी अस्वाभाविक नहीं लग रहा था सिवाय शारीरिक कमजोरी को छोड़कर। इस जगह पर चुपचाप बैठे रहने के अलावा और कोई असहाय नहीं लग रहा था। सारा शरीर कांप रहा था पहले-पहल हरिशंकर बाबू और अगणी काका या पहरेदारों को बताया था प्रद्युम्न ने। बाद में गप्प बाजी मारना उसे अच्छा नहीं लग रहा था। दोपहर सबसे ज्यादा कष्टदायी थी- धूप और गर्मी। शाम को सात बजे नींद आ जाती थी मगर रात को दो बजे नींद टूट जाती थी।
                अगणी काका के दोनों हाथों को पकड़कर आग्रहपूर्वक कहने लगे, “बैठिए, बैठिए।
                पर्सनल ऑफिसर और अगणी काका के साथ में प्रद्युम्न बैठा हुआ था सोफे पर। घर के अंदर जीरो पावर की रोशनी जल रही थी। किसी ने भी उठकर ज्यादा रोशनी की बत्ती नहीं जलाई। घर के अंदर ठंडी-ठंडी हवा बह रही थी। कूलर चल रहा था या एयर-कंडीशनर? यह अच्छी तरह नहीं समझ पा रहा था प्रद्युम्न, फिर भी पसीने से तर-बतर हो रहा था प्रद्युम्न। उसके पास रूमाल नहीं था। अगर रूमाल रहता तो ठीक रहता।
                कुछ समय पहले की बात थी। अगणी काका और प्रद्युम्न गए थे पर्सनल अफसर के साथ देशमुख साहब के घर। पर्सनल अफसर ने उन्हें बुलाया था। वहां देशमुख साहब ने हाथ मिलाया था। अगणी काका ने कहा था, “देखिए, सर, हम आपकी दिक्कत समझ रहे हैं। हम कभी भी आपको दिक्कत में नहीं डालना चाहते। हम आपके साथ किसी भी प्रकार की जोर-जबरदस्ती नहीं करना चाहते, कि हमारे यूनियन को मान्यता दीजिए या ध्रुव खटुआ के संबंध तोड़ दीजिए। हम जानते हैं, किस तरह हमें अपनी स्थिति जाहिर करनी है। हमारी केवल एक ही मांग है, हमारी लड़ाई हमें करने दीजिए। मैनेजमेंट को यहां निष्पक्ष भूमिका में रहना चाहिए।”
                पर्सनल ऑफिसर जब बुलाने गए थे, हरिशंकर ने कहा था, देशमुख यहां पर क्यों नहीं आ रहे हैं? हम क्यों जाएंगे ? अगणी काका मगर खुश हो गए थे। हरिशंकर को तर्क भी देने लगे थे, देखिए, मैनेजमेंट मैनेजमेंट ही होता है। साहब लोग साहब होते हैं। मैनेजमेंट इतनी दूर तक झुक गया है। ऐसे अवसर का अगर हम फायदा नहीं उठाते हैं तो बेवकूफी वाला काम होगा।
                हरिशंकर बाबू ने ज्यादा कुछ नहीं कहा। केवल गंभीर हो गए थे। अगणी काका ने लगभग जबरदस्ती बिना हरिशंकर की अनुमति लिए, देशमुख साहब के घर चला गया प्रद्युम्न को लेकर। जाने से पहले अगणी काका ने कानाफूसी करते हुए प्रद्युमन को कहा था, “हरिशंकर बाबू कभी भी प्रेक्टिकल नहीं बन पाए। इसलिए तो पॉलिटिक्स में आगे नहीं बढ़ पाए।देशमुख साहब के घर अगणी काका को साहब ने कहा था, देखिए मैनेजमेंट को यूनियन के बारे में कुछ नहीं कहना है। फिर भी हमें दो विषय देखने पड़ते हैं। पहला, प्रॉडक्शन और दूसरा, शांति-शृंखला । इन दोनों को छोड़कर हमें और कुछ नहीं चाहिए। अगणी  काका ने उत्तर दिया था, “प्रॉडक्शन बाधित नहीं होगा, इस बात की हम गारंटी देते हैं। इससे पहले भी ध्रुव खटुआ के दल ने प्रॉडक्शन बंद किया था, हमने नहीं और रही शांति की बात, हम लोग पूरी तरह गांधीवादी है, सर। अन्यथा हमने अनशन मार्ग को नहीं चुना होता वरन तोड़-फोड़ चालू कर देते।”
                किसी ने आकर चार कप चाय रख दी थी। साथ में ठंडा पानी भी। प्लेट में बिस्कुट और मिठाई। प्रद्युम्न ने अनजाने में अन्यमनस्क भाव से मुंह में बिस्कुट डाल दिया था। ठीक उसी समय उसे याद आ गई अनशन की बात। तीन दिनों तक प्रद्युम्न ने कुछ भी खाया नहीं था। सिवाय पानी पीने के और अब देशमुख साहब और पर्सनल ऑफिसर के सामने बिस्कुट खाना कितना लज्जाजनक और प्रद्युम्न के इतने दिनों की अनशन के प्रति कितनी अनास्था थी- सोचने मात्र से लज्जित हो उठा था प्रद्युमन। वह क्या करे करेगा ? मुंह के अंदर रखी बिस्कुट चबा नहीं पा रहा था वह। हाथ की झूठी बिस्कुट प्लेट में रख नहीं पा रहा था। सिर ऊंचा कर सामने देख नहीं पा रहा था देशमुख साहब या पर्सनल ऑफिसर की तरफ। उसकी कनपटी लाल हो गई थी।
                अगणी काका ने कहा था, देखिए, “फॉर्मल बातचीत के पहले हमारी दो मांगे हैं। उन्हें माननी होगी। अवश्य, मांगे इतनी खास नहीं हैं। आपके चाहने से पूरी हो जाएगी।इतना कहकर अगणी काका चुप हो गया। देशमुख और पर्सनल ऑफिसर उसकी तरफ प्रश्नवाचक मुद्रा में देखा था ? प्रद्युम्न की मुट्ठी में छिपाकर रखी खंडित बिस्कुट उसे लग रही थी, किसी गोपनीय पाप की तरह। मुंह में अटकी हुई बिस्कुट का टुकड़ा उसे अपमान की तरह लग रहा था। वह गटक नहीं पा रहा था। सिर ऊपर नहीं कर पा रहा था। देशमुख साहब क्या अगणी काका की बात सुन नहीं पाए, प्रद्युम्न की अवस्था देखकर मजे लेकर हंस रहे थे। या सोच रहे थे कितना बड़ा ठग प्रद्युम्न अनशन के नाम पर प्रताड़ित कर रहा है क्या ?”
                अगणी काका कहने लगे, “हमारी दो मांगें हैं। पहली, ओमप्रकाश, जिसका यूनियन की मारपीट में पैर टूट गया, उसकी सिक छुट्टी नहीं है, उसे हल्के काम में फिट करवा दीजिए। और दूसरी मांग, प्रद्युम्न की यानि मेरे भतीजे की। जो समारु खड़िया के नाम पर कोलियरी में भर्ती हुआ, उसे किसी ऑफिस के क्लर्क काम में नियोजित करना और वह एफिडेविट कर अपना नाम बदलकर लाएगा, उस एफिडेविट को आधार बनाकर कागज-पत्रों में उसका नाम समारु खड़िया से बदलकर प्रद्युम्न मिश्रा कर देना।”
                प्रद्युम्न के कान सतर्क हो गए। सीने की धड़कन बढ़ रही थी । क्या कहेंगे देशमुख साहब ? चेहरा ऊपर कर देखने लगा था। यही वह क्षण है जब प्रद्युम्न मिश्रा की स्थिति, अस्तित्व, भविष्य और जीवन का फैसला होने जा रहा था। एक ही क्षण में पता चल जाएगा कि उसका आने वाला जीवन कैसा होगा। उसकी सफलता, विफलता, उसकी हंसी, उल्लास- सब पता चल जाएगा। देशमुख साहब के कुछ कहने के पहले ही प्रद्युम्न समझ गया था। मुंह में भीतर की बिस्कुट गीली हो गई थी, अन्यमनस्क भाव से।
                इतना जल्दी सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा, सोचा तक नहीं था प्रद्युम्न ने। देशमुख साहब की सम्मति से ही बज उठे थे दूर कहीं से घंटों की आवाज। आंखें बंद कर ली थी प्रद्युम्न ने खुशी से। उसकी आंखों की पलकों के नीचे थी दिगंत तक फैली समुद्र की वेलाभूमि। पूरा लैंडस्केप तक व्याप्त, कहीं नहीं। न टूरिस्ट, न शामूका बेचने आए फेरीवाले, न मूढ़ी बेचने वाले लड़के, न कैमरे लेकर घूमने वाले कोई नहीं है। बहुत दूर से दिग्वलय के पास से एक छोटा बिंदु आगे आ रहा हो। आगे आते -ते बड़ा होता जा रहा था। आहः वह मीनाक्षी। आगे आने वाली लड़की मीनाक्षी। समुद्र तट अशांत और निर्जन। एक सशब्द नीरवता और निर्जन शून्यता के अंदर मीनाक्षी के असह्य भाव और शून्य और नीरव कर दे रहे थे परिवेश को। ओह, मीनाक्षी, हाय, मीनाक्षी को इस समय याद आना था।
                देशमुख साहब एक मिनट के लिए आंखें बंद करके कहने लगे, “ठीक है। मैं राजी हूँ। आप सोच लीजिए, ये दो काम हो जाएंगे। जहां जहां एग्रीमेंट करने हैं, वे बातें बाद में भी की जा सकती है। मगर आप अनशन तोड़ दीजिए पहले।”     
                “अनशन तोड़ देंगे, सर।अगणी काका कहने लगा, आपके साथ हमारी क्या बातचीत हुई हमें हरिशंकर बाबू को बता देनी चाहिए। इधर हमारे पार्टी के मेम्बरों को भी बता देना जरूरी है। आप ऐसा कीजिए, कल सुबह दस बजे आकर फलों का रस पिला दीजिए अपने हाथों से हरिशंकर को। उसके बाद हम आनुष्ठानिक तौर पर घोषणा कर देंगे। बात को बीच में रोकते हुए कहने लगे देशमुख साहब, “मगर आप लोग इस अनशन को लेकर राजनैतिक स्तर पर लाभ क्यों नहीं उठा लेते, एक बात याद रखिएगा, मैनेजमेंट कभी नहीं  चाहेगा किसी भी परिस्थिति में कोई उसका उपहास करें, आप भी ऐसी कोई घोषणा नहीं करेंगे, जिसकी वजह से ध्रुव खटुआ का दल उत्तेजित हो जाएगा।
                अगणी काका का नम्र स्वभाव देखकर आश्चर्यचकित हो गया था प्रद्युम्न। कुछ ही दिन पहले उसे देशमुख साहब ने अपमानित कर बाहर निकाला था। फिर भी किस तरह से नम्र हो गए है वह ? प्रद्युम्न तो इतना मधुर व्यवहार कभी भी नहीं कर पाता ? अगणी काका कहने लगा:  आप निश्चित रहिए, सर। आपको दिक्कत में डालने वाला ऐसा कोई भी काम हम नहीं करेंगे।
                सभी के साथ बाहर आ गया प्रद्युम्न। इस ग्रीष्म रात्रि की गरम हवा बहने के बाद भी उसे दुनिया बहुत ही सुंदर और मनोरम दिखाई दे रही थी। उसे कभी सुख या शांति नहीं देने वाली पारबाहार कोयला खदान की कॉलोनी भी नए रूप में दिखने लगी थी। मोहपाश से युक्त। उसकी जीवनयापन प्रणाली में और मैला आवरण नहीं था। नहीं था मोनोटोन्स कैद। देशमुख साहब और पर्सनल ऑफिसर से विदा लेकर जीप में बैठते-बैठते अगणी काका कहने लगा, “तू जा प्रद्युम्न, हम कल सुबह अनशन तोडेंगे, इस खबर को दूसरे मेम्बरों को भी सूचित कर देना। कल देशमुख साहब नेताजी को फलों का रस पिलाकर आनुष्ठानिक तरीके से एक प्रोसेशन निकालना पड़ेगा। तुम सभी को लेकर आओ, अनशन वाली जगह। वहां पर सब बातचीत कर लेंगे। तुम थोड़ा घर भी चले जाना। वहाँ अपनी काकी को बता देना अनशन तोड़ने की खबर। घर में सबकुछ कैसे हैं, क्या पता। अनशन में बैठने से पहले तुम्हारी काकी कह रही थी, घर में आटा नहीं है। गेहूं लाना भूल गया था मैं। वह क्या कर रही होगी ?रविवार को मीट भी नहीं खरीदती है शायद। तुम्हारी काकी तो गुस्से में लाल-पीली हो गई होगी। तुम थोड़ा प्यार से पूछना।”
                अगणी काका के बाहरी कठोर और प्रेक्टिकल चेहरे के पीछे छुपा हुआ था एक अत्यंत ही नरम स्वभाव वाला आदमी, आज प्रद्युम्न को अचानक जिसके दर्शन हो गए।एक आदमी के भीतर कितने-कितने आदमी छुपे होते हैं ? वास्तव में, प्रद्युम्न की जानकारी कितनी कम और अनुभव रहित ? प्रद्युम्न अगणी काका के व्यक्तित्व से धीरे-धीरे प्रभावित होता जा रहा था जैसे।
                जीप से उतर गया प्रद्युम्न अगणी काका के घर के पास। तीन दिन हुए बिना उठे अनशन वाले स्थान से। पारबाहार कॉलोनी मानो एक अपरिचित वर्षा से धुली पड़ी हो। उसकी परिचित यह कॉलोनी जैसे नए कपड़े पहनकर सतेज दिख रही हो। दूर से प्रद्युम्न ने देखा, अगणी काका के घर के सामने बत्ती जल रही थी।
                प्रद्युम्न ने सोचा था, उनके अनशन पर बैठने की बात को लेकर अगणी काका के सारे घर में निस्तब्धता छाई हुई होगी। काकी अंधेरे घर में सो रही होगी। रुनु झुनु आपस में बहुत ही कम और आवश्यक बातें कर रही होगी। घर खाली खाली लग रहा होगा। मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था। बल्कि घर के भीतर चहल-पहल सुनाई पड़ रही थी। ड्राइंग-रुम में पांव रखते ही, प्रद्युम्न समझ गया था, बेडरुम में ताश का खेल चल रहा है। ड्राइंग-रुम में प्रद्युम्न के पांवों की आवाज सुनकर झुनू दौड़कर देखने आई उसको और आश्चर्य से कहने लगी थी, “ऐ मां, तुम ? माँ, भाई आ गया है।
                प्रद्युम्न का हाथ खींचकर ले गई थी बेड-रुम की तरफ। जहाँ खाट पर काकी, रुनु, झुनु और पीटर बैठकर ट्वेन्टी नाइन खेल रहे थे। काकी ने हंसते हुए पूछा, “अनशन पर बैठे थे तुम तो ? अचानक इधर?”
                पीटर प्रद्युम्न के साथ बातचीत नहीं करता था। वह चेहरा नीचे झुकाकर ताश के पत्ते फेंट रहा था। रुनु लज्जा से चेहरा घुमाकर बैठी हुई थी। वह प्रद्युम्न के पास कभी भी सहज नहीं हो पाई थी। झुनु ने अपनेपन से हाथ पकड़कर प्रद्युम्न के गाल पर, होठों को छूते हुए कह रही थी- माँ, देख रही हो न? भाई इन तीन दिनों में कितना कमजोर हो गया हो ? प्रद्युम्न को मन में अचानक मीनाक्षी की याद आ गई। मीनाक्षी क्या वास्तव में प्रद्युमन की प्रतीक्षा में बैठी होगी ? बैठने पर भी, एक क्षत्रिय लड़की के साथ शादी करने का साहस प्रद्युम्न में है क्या ? इतने दिनों के बाद प्रद्युम्न खोज पाया था अपनी मिट्टी। समारु खड़िया के परिचय को वह भूल जाएगा कुछ ही दिनों में। वह खोज पाएगा अपना परिचय, अपनी वंश मर्यादा, अपना अतीत और अपनी यादें। वह समारु खड़िया के बदले प्रद्युम्न होने पर भी क्या वास्तव में खोज पाएगा। मिट्टी ? मीनाक्षी के बिना क्या प्रद्युम्न सुखी हो पाएगा ? तृप्त ? परिपूर्ण ? शायद वह कभी संपूर्ण मनुष्य नहीं बन पाएगा। आधा मनुष्य होकर रहेगा वह।
                प्रद्युम्न ने लेकिन मन ही मन निश्चय कर लिया था, जो कुछ भी मानो, अगणी काका के घर के इस परिवेश को वह ग्रहण नहीं कर पाएगा ? उसका दम घुट जाएगा। वह निश्चय ही इस परिवेश से दूर जाएगा। एक अलग जीवन जिएगा। नहीं, उसे और समारु खड़िया होने की जरूरत नहीं। उसके बाद वह प्रद्युम्न मिश्रा  ही रहेगा। असली प्रद्युम्न मिश्रा।
 


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