प्राक्कथन


प्राक्कथन
  सूचना-क्रांति के उद्भव व सोशल-मीडिया के विश्व-व्यापी प्रचार-प्रसार के कारण,भले ही,आम-जनता को कोलगेटजैसे घोटालों  की खबरों से कोल-इंडिया लिमिटेड, कोल-मंत्रालय, कोल-माइंस एवं कोल-ब्लॉक आवंटन की थोड़ी-बहुत जानकारी हो चुकी है, मगर अभी भी कोल-मंत्रालय की नीतियों के कार्यान्वयन के लिए दायी सरकारी मशीनरी तथा कोल-खदानों के आंतरिक प्रबंधन की जानकारी नहीं के बराबर है।यह बात अलग है कि इस साल के शुरूआत में भारत-सरकार के भूतपूर्व कोल-सेक्रेटरी प्रकाश चन्द्र पारख की पुस्तक क्रूसेडर या कांस्पिरेटर?” ने जहां कोल-मंत्रालय की अंदरूनी गतिविधियों को जग-जाहिर किया, वहीं दो दशक पूर्व जगदीश मोहंती के उपन्यास निज-निज पानीपतने एक भूमिगत कोयले की खदान के प्रबंधन,परिवेश तथा अन्योऽन्याश्रित सम्बन्धों को केन्द्र-बिन्दु बनाकर अपनी सारी संचित अनुभूतियों व अनुभवों को ओड़िया-भाषा में अभिव्यक्ति प्रदान की थी। यह उपन्यास अपने जमाने में बहुत ही ज्यादा लोकप्रिय साबित हुआ था। ऐसा कहा जाता है कि ओड़िया कथा-पत्रिका में प्रकाशित इस उपन्यास के धारावाहिक-अंशों को पढ़ने के लिए पाठक बेचैन रहते थे है। ओड़िया साहित्यकार परेश कुमार पटनायक  के अनुसार एक समय था, जब पत्रिकाएँ जगदीश मोहंती के नाम से बाजार में बिकती थी। जिस पत्रिका में उनकी कहानी छपती थी , वह पत्रिका बाजार से तुरंत खत्म हो जाती थी ।ओड़िशा के प्रतिष्ठित साहित्यकार श्यामा चौधरी के अनुसार जगदीश मोहंती ओड़िया-साहित्य के ईश्वर थे । भारतीय क्षेत्रीय भाषा में लेखन-कर्म को समर्पित एक महान लेखक के लिए इससे बढ़कर क्या हो सकता है!  मगर सबसे ज्यादा खेद का विषय यह है, इस अनमोल कृति से हिन्दी-जगत अब तक अछूता रहा क्योंकि  इस उपन्यास का न किसी सरकारी अथवा गैर-सरकारी संस्थान ने हिन्दी में अनुवाद करना उचित समझा और न ही ओड़िशा सरकार ने इस कालजयी कृति को उचित सम्मान दिया। हमारे देश में यह सबसे बड़ी विडम्बना है कि कभी-कभी बड़े-बड़े साहित्यकारों का भी सही मूल्यांकन नहीं हो पाता है, अगर उनमें किसी बड़े पद अथवा किसी बड़े खेमे को प्रभावित करने का सामर्थ्य नहीं हो। यह भी देखा गया है कि हमारे देश में अधिकतर IAS या बड़ी-बड़ी एकेडेमिक पदवी वाले साहित्यकार एयर-कंडीशनर रूम में बैठकर धूप में पत्थर तोड़ते पसीने से लथ-पथ मजदूरों की भूख-प्यास पर लिखकर ज्यादा मान-सम्मान पाते हैं, जबकि यथार्थ-धरातल पर उस भूख से उनका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता।केवल फेस-वैल्यूतथा वक्त पड़ने पर एक-दूसरे के काम आनेकी आशा और आकांक्षा की वजह से वे उत्तरोत्तर विजय की सीढ़ियाँ चढ़ते चले जाते है। जबकि साधारण नौकरी करने वाले भले ही बड़े लेखक क्यों न हो, अपने उचित सम्मान के हकदार के दर्जे से वंचित रह जाते हैं।
 जगदीश मोहंती के इस उपन्यास का अनुवाद करने में मुझे दुगुनी खुशी हो रही थी, क्योंकि पहले तो मैंने ओड़िया-भाषा के विपुल साहित्य-संग्रह के बोझ तले छुपे हुए कोहिनूर को प्रांतीयता की सीमाओं को तोड़कर विशाल हिन्दी-जगत में लाने का एक क्षुद्र मगर सार्थक प्रयास किया और दूसरा कारण, हिंगीर रामपुर कोलियरी के परिसर में घटी उन घटनाओं की स्मृतियों को तरोताजा करते हुए अपने अतीत में झाँकने का प्रयास कर रहा था, जिन घटनाओं का एक-दो दशक पूर्व मैं स्वयं साक्षी रहा। वही कोलियरी, वे ही लोग, वे कामगार, वे ही ओवरमेन,माइनिंग सरदार,वही संस्कृति, वही रहन-सहन, सब-कुछ वैसा ही, जैसा लेखक ने अपनी रचना-प्रक्रिया में लिखा और बीस-पच्चीस साल बाद भी मैंने जिन्हें यथार्थ अनुभव किया मानो एक-एक पात्र मरणोपरांत भी मेरे सम्मुख प्रकट हो रहे हो। यह भी एक संयोग की बात है, विगत वर्ष जब डॉ॰ सरोजिनी साहू अपने पति जगदीश मोहंती के असामयिक मौत से मर्माहत होकर उनके साथ गुजरे लम्हों को याद करते हुए फेसबुक पर एक-एक कर उनकी किताबों के कवर-पेज के फोटो के साथ उनके विषय-वस्तु पर हल्की-फुल्की जानकारी पोस्ट कर रही थी। उनमें एक था उनका उपन्यास निज-निज पानीपत। और जब मैंने इसके बारे में फेसबुक पर पढ़ा तो महानदी कोलफील्ड्स लिमिटेड में एक खनन-अभियंता होने के कारण इसी कोयलाञ्चल की कोयले की खदान से संबन्धित विषय-वस्तु के कारण मेरा बरबस उस तरफ आकर्षित होना स्वाभाविक था।  मैं डॉ॰ सरोजिनी साहू को हार्दिक आभार व धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ, कि उन्होने मुझे इस उपन्यास का हिन्दी में अनुवाद करने की अनुमति प्रदान की।
जगदीश मोहंती का उपन्यास निजनिज पानीपतओड़िशा की सबसे पुरानी भूमिगत कोयले की खदान हिंगीर रामपुर कोलियरी की कार्य-संस्कृति, श्रमिक-संघों की पारस्परिक प्रतिस्पर्धा तथा अपने-अपने काम निकालने के लिए अपनाई जाने वाली अंदरूनी रणनीति, प्रबंध के सभी स्तरों मैनेजर,सब एरिया मैनेजर (डिप्टी चीफ माइनिंग इंजीनियर) तथा जनरल मैनेजर द्वारा लिए गए विरोधाभासी निर्णयों का यथार्थ-चित्रण तथा साथ ही साथ, महिला-मंडल की अधिकारियों के प्रमोशन में महती भूमिका के बारे में अत्यंत ही सटीक, बेबाकी तथा निर्भयतापूर्वक वर्णन किया गया है। यद्यपि यह उपन्यास सन 1990 में लिखा गया था, मगर आज भी कोयला खदानों के पारंपरिक प्रबंधन के साथ-साथ कुछ हद तक वही कार्यशैली, कार्य-संस्कृति, रहन-सहन के ढंग, आंतरिक व बाहरी परिवेश देखने को मिलता है। जगदीश मोहंती ने अपना समूचा कैरियर हिंगीर रामपुर कोलियरी में बिताया, इसलिए उनका इस कोयलांचल की नस-नस से वाकिफ होना स्वाभाविक था। मेरा भी यह सौभाग्य ही था कि मैंने भी मेरी ज़िंदगी का एक दीर्घ-दशक इसी कोलियरी में खनन-प्रबंधन प्रशिक्षु से लेकर वरीय खनन प्रबंधक बनने तक व्यतीत किया। अतः इस उपन्यास की रचना-प्रक्रिया के समय की बहुत सारी घटनाओं का साक्षी अवश्य रहा। मेरी जानकारी तक हिन्दी जगत में इस तरह के उपन्यास बहुत ही कम लिखे गए होंगे, यद्यपि । एक अच्छे लेखक का दायित्व बंनता है कि अपने इर्द-गिर्द के परिवेश से वह जो कुछ भी प्राप्त करता है, उसे अपने शब्दों में पिरोकर समाज के लिए कालजयी कृति के रूप में सृजन करें। जगदीश मोहंती का यह उपन्यास अपने जमाने का बहु-चर्चित उपन्यास रहा है। इस उपन्यास का हिंदी में अनुवाद करते समय मेरे मनमस्तिष्क में वे सारे पात्र जीवित हो उठते थे, जिन्हें मैं अपनी नौकरी के दौरान किसी न किसी कार्यवश मिला, मगर अब तक मैं अनभिज्ञ  था कि वे पात्र जगदीश मोहंती की कलम से पैदा होकर ओड़िया-लिपि में अपने अमरत्व को प्राप्त कर चुके हैं। यद्यपि हमारे बीच जगदीश मोहंती नहीं है, वे पात्र भी नहीं है, वह हिंगीर रामपुर कोलियरी भी नहीं है। जगदीश मोहंती का 29 दिसंबर 2013 को निधन हो गया और हिंगीर रामपुर कोलियरी मई 2014 को बंद हो गई।
मगर हिंदी भाषा में रूपांतरित होकर वे सारी दृश्यावली अब आपके हाथों में हैं, जो तत्कालीन कोलियरी-परिवेश,सामाजिक-परिस्थितियों तथा ट्रेड-यूनियनों और मैनेजमेंट की पारस्परिक रणनीतियों के साथ-साथ भूमिगत खदानों में दूसरे छदम-नाम से नौकरी करने वाली प्रथा की तरफ भी आपका ध्यानाकृष्ट करेगी। इस उपन्यास में कुछ अंग्रेजी व तकनीकी शब्दावली का अवश्य प्रयोग हुआ, मगर उन शब्दों का प्रयोग पाठक के समक्ष वास्तविक चित्रण करने में सफल हुआ है।
उपन्यास में कुछ जगहों के नाम कथानक को ध्यान में रखते हुए बदल दिए गए है। जैसे रामपुर कोलियरी की जगह पारबाहार कोलियरी। उपन्यास की शुरुआत होती है समारु खड़िया के नाम पर पारबाहार कोलियरी में सामान्य मजदूर की नौकरी करने के लिए पुरी से आए प्रद्युम्न मिश्रा के भूमिगत खदान में प्रवेश से। ब्राह्मण परिवार के प्रद्युम्न मिश्रा को यह नाम बहुत खलता है, मगर कर भी क्या सकता है, अपने गांव के रिश्तेदार अगणी काका के अनुसार इसके अलावा नौकरी पाने का कोई शार्ट-कट नहीं था।
बीच में कहानी घूमती है एक ट्रेड यूनियन नेता हरिशंकर पटनायक के इर्दगिर्द। हरिशंकर पटनायक ने यूनियन के निर्माण में न केवल अपनी सारी ऊर्जा लगा दी वरन अपने परिवार को भी दाव पर लगा दिया। मगर हासिल क्या हुआ?  हेमबाबू जैसे मंत्री ने दूध में से मक्खी निकालने की तरह उन्हें यूनियन से बाहर का रास्ता दिखाकर ध्रुव खटुआ जैसे बदमाश आदमी को यूनियन का नेतृत्व सौंप दिया। स्वार्थ-लोलुप लोगों के उकसाने पर वह एक नए यूनियन के निर्माण करने का विफल प्रयास करते हैं, जिसके मर्मांतक विवरण से पाठक को गुजरना पड़ता है । हरिशंकर के पिताजी बचपन से उसके कंधों पर परिवार का बोझ छोड़कर संन्यासी बन जाते हैं और घर की गुजर-बसर करने के लिए वह पारबाहर कोलियरी में काम खोजने आता है और यहां आकर श्रमिक-संघों की गतिविधियों में इतना लिप्त हो जाता है कि घर-परिवार बच्चे  सभी की घोर-उपेक्षा करने लगता है वह। यहां तक कि उसकी पत्नी तरंगिनी पागल हो जाती है । बूढ़ी मां घर में पैसे न होने के कारण पास की होटल से समोसे उधार लाकर पेट भरती है, जिसका दुकानदार आगे जाकर समोसे उधार देने से इंकार कर देता है। कई जगह उपन्यास में पत्रों का चित्रण इतना मर्मस्पर्शी व जीवंत है कि पढ़ते समय संवेदनशील पाठक तो क्या सामान्य पाठकों की आँखें भी अश्रुल हो जाती हैं। कहानियों और उपन्यासों में इस प्रकार का विवरण प्रस्तुत करने में जगदीश मोहंती सिद्धहस्त रहे हैं।
इस उपन्यास में ट्रेड-यूनियनों के पारस्परिक संघाती मुठभेड़ों के साथ-साथ मैनेजमेंट पर अपना दबाव बनाने की प्रक्रिया के अतिरिक्त कोलियरी के सामाजिक जीवन व्यवस्था का भी उल्लेख मिलता है। परिवार में पतिपत्नी के अलग-अलग अवैध संबंध होने तथा बच्चों की इस ओर बढ़ती प्रवृत्ति को दर्शाया गया है। धर्म भाई पीटर का अगणी काका की लड़की रूनु के साथ भले ही अश्लील संबंध नहीं बताए गए है, मगर उसके साथ एक ही बिस्तर पर सोने की घटना का उल्लेख अवश्य मिलता है । इसके अतिरिक्त, खदान-प्रबंधन में मैनेजर देशमुख, सब एरिया मैनेजर मि॰ मिश्रा तथा जनरल मैनेजर मि॰मिरचंदानी के बीच में भी राजनीति दिखाई गई है, अपने-अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए एक जनरल मैनेजर किस तरह यूनियन वाले के साथ मिलकर हिंसक गतिविधियों को अंजाम देता है और जिसके आधार पर सब एरिया मैनेजर मि॰ मिश्रा का स्थानांतरण हो जाता है । और जब उसके स्थान पर पदोन्नत मैनेजर देशमुख उस यूनियन को सपोर्ट करता है तो वह जनरल मैनेजर किसी गिरगिट की तरह रंग बदल देता है और श्रमिक अशांति का सारा ठीकरा उसके सिर पर फोड़ देता है। कोयले की खदानों में काम करने वाले श्रमिक प्रतिनिधि, अधिकारी-वर्ग और मैनेजरों के लिए यह एक खुला दस्तावेज हैं, जिसमें वे अपने अर्जित अनुभवों की साम्यता उपन्यास के पात्रों के साथ जोड़ सकते हैं ।
यही ही नहीं, स्वार्थी अगणी होता किस तरह परित्यक्त हरिशंकर पटनायक को नए यूनियन संगठित करने के लिए उकसाकर संघर्ष करने के लिए आगे कर देता है और अपना उल्लू सीधा होने पर अपने हाथ पीछे खींच लेता है। जैसे ही अगणी काका मैनेजमेंट द्वारा समारु खड़िया का नाम बदलवाने के लिए एफडेविट देकर प्रद्युम्न मिश्रा रखने की मांग प्रबंधन से मनवा लेने पर अनशन पर बैठे हुए हरिशंकर को इस तरह छोड़ देता है, जैसे उसका कभी उससे नाता ही नहीं रहा हो।
उपन्यास के बीच-बीच में मार्क्सवाद, गांधीवाद तथा श्रमिक-संघों की उत्पत्ति और औचित्य  पर अनेकानेक विचारधाराओं के मुख्य पहलुओं को स्पर्श करते हुए उपन्यासकार जगदीश मोहंती ने यह सिद्ध किया है कि व्यक्तिगत स्वार्थों के आगे सामूहिक हित या राष्ट्रधर्म जैसे कोई चीज नहीं है। सभी अपने-अपने पानीपतमें मस्त है। यद्यपि जगदीश मोहंती का यह उपन्यास कोलियरी परिवेश पर किया गया एक अनूठा प्रयोग है, मगर वृहद-स्तर पर हमारे सामाजिक मूल्यों के पतन के साथ-साथ अपनी स्वार्थ-सिद्धि में लगे सामान्य जन-मानस की मानसिकता को उजागर  करने में पूरी तरह से सफल हुए हैं । इस उपन्यास के अनुसृजन में मुझे अपने ऑफिस और घर दोनों का भरपूर सहयोग मिला।धर्मपत्नी शीतल ने स्वयं सॉफ्टकॉपी में आवश्यकतानुसार संशोधन किया।यही ही नहीं, मेरी वर्तमान कार्य-स्थली लिंगराज खुली खदान के श्रमिक-संघों के वरिष्ठ नेताओं का भी काफी सहयोग मिला। जिसमें भारतीय मजदूर संघ के सुदर्शन मोहंती व मेरे साइडिंग स्टाफ सरोज शंकर मिश्रा का अभूतपूर्व योगदान रहा। कांटाघर के अक्षय कुमार गडनायक, अमित मोहंती , कोल-टेस्टिंग प्रयोगशाला के सीनियर तकनीकी पर्यवेक्षक नित्यानन्द सामंत, डिस्पैच ऑफिस के कार्यालय अधीक्षक रमेशचन्द्र आचार्य व अरुण डे तथा मेरी सहयोगी सास्वाती नाएक अपना समय निकाल कर पांडुलिपि के संशोधन करने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया, जिनके लिए मैं सभी का हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ।लिंगराज क्षेत्र के महाप्रबंधक श्री सुबीर चंद्रा, परियोजना पदाधिकारी श्रे संजय झा, खदान- प्रबन्धक श्री एस॰वी॰जोशी समेत अनेक अधिकारियों का भी तहे दिल से आभार व्यक्त करता हूँ, जिनके आशीर्वाद से इस कृति का अनुसृजन संभव हो सका। अंत में, मैं आशा करता हूँ कि हिंदी पाठकों को इस उपन्यास का मेरा अनुवाद अवश्य पसंद आएगा।                                                               
 दिनेश कुमार माली
तालचेर,ओड़िशा


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