षष्ठ परिच्छेद
षष्ठ परिच्छेद
सारे
दिन प्रद्युम्न के पास करने के लिए कुछ नहीं। नौकरी पाने से पहले काकी को रसोई
करने में हाथ बँटाता था। अब नौकरी पाने के बाद अगणी काका और काकी उसे रूनु के लिए
योग्य पात्र समझ कर थोड़ा स्नेहपूर्वक व्यवहार करने लगे थे।
प्रद्युम्न
के इस प्रकार टब चेकर के काम से लोड़िंग में चले जाने की घटना ने जितना दुखी
अगणी काका को नहीं
किया था, उससे
कहीं ज्यादा दुखी किया था काकी को। उसने प्रद्युम्न के लिए अगणी काका
के पास वकालत की थी, जो भी
हो पढ़ा-लिखा ब्राह्मण का बेटा है। कोई घंडा-घसिया नहीं जो कि गाड़ी भरेगा?
अगणी
काका थोड़ा चिढ़ गया था काकी के ऊपर, कोयला खदान की नौकरी करने में इस तरह का जात-पात का
विचार कैसा? बहुत
सारे पढ़े-लिखे ब्राह्मणों के लड़के लोड़िंग करते हैं। मैं ब्राह्मण का लड़का नहीं
था? कम्पनी
के जमाने में जब मैं भर्ती हुआ था, साहब लोगों के जूठे बर्तन माँझे थे, गाड़ी
लोडिंग की थी, उस
समय ट्रामर का काम भी किया था। टब गाड़ी को रस्सा से बाँध कर हॉलेज से खींचा था।
अब देखो मैं इलेक्ट्रिशियन हूँ। पांच कैटेगरी की
तनख्वाह पाता हूँ। ओवर टाइम, सण्डे मिलाकर अब मैं इंकम-टैक्स देता हूँ। यदि मैं
ब्राह्मण का लड़का सोच कर अभिमान से बैठ जाता तो आज तुम इतने पैसे खुले हाथों से
खर्च कर पाती?
अगणी
काका का गुस्सा, काकी
के ऊपर नहीं प्रद्युम्न के ऊपर था। प्रद्युम्न को बहुत असहाय लगने लगा। उसकी अपनी
अनुभूति-बोध के प्रति किसी का ममत्व नहीं। वह भी एक इंसान है, उसकी
भी इच्छा अनिच्छा रहती हैं, व्यक्तिगत रूचि-अरूचि रहती है, अपनी
इच्छा अनुसार जीवन जीने का अधिकार है- ये बातें कोई मानने के लिए तैयार नहीं है।
प्रद्युम्न
आजन्म इस तरह पराधीन था। सबके ऊपर वह बोझ बन कर रहता था। वह अपनी माँ के पेट में
अनाकांक्षित शिशु के रूप में था। उसके माँ के गर्भ में आने से पहले एक बेटा और तीन
बेटियों के जन्मने से माँ क्लांत हो चुकी थी। कल आने वाला शिशु भी लड़की हो सकता
है, इसी
आशंका में पेट में गर्भ को नष्ट करने के लिए माँ ने इधर-उधर की दवाइयाँ खाई थी। वे
दवाइयाँ प्रद्युम्न को मार तो नहीं पाई, मगर शायद इतना दुर्बल स्वास्थ्य उन्हीं दवाओं की वजह
से हुआ होगा। प्रद्युम्न को अपने जन्म के बहुत बाद में पता चला कि वह अपने माँ-बाप
की अनाकांक्षित संतान थी। यह जानने के बाद उसके पाँव तले की ज़मीन खिसक गई थी।
बहुत असहाय छिन्न-मूल की तरह मन ही मन अनुभव कर रहा था, अपने
आपको निःशंक व्यर्थ जीवन का बोझ ढोने वाले इंसान की तरह।
अगणी
काका का गुस्सा देख कर प्रद्युम्न को एक बार फिर से याद हो आई अपने जन्म से पूर्व
प्रद्युम्न की मृत्यु के लिए प्रार्थना करती उसकी माँ की करूण असहाय विनती। तब
क्या प्रद्युम्न जन्म से ही क्रीतदास है? उसके जन्म में न था उसकी इच्छा-अनिच्छा का सवाल और
जीवन जीने के लिए प्रद्युम्न को इस तरह दूसरों की इच्छा अनुसार जीवन जीना पड़ेगा।
अगणी काका बाद में उसे ले गया था यूनियन ऑफिस और वहाँ ध्रुव बाबू के पास फरियाद भी
की थी। ध्रुव बाबू यूनियन ऑफिस के भीतर बहुत सारे चम्मचों से घिर हुआ था। ध्रुव
बाबू के पीछे वाली दीवार पर हेम बाबू का एक बड़ा फोटो टंगा हुआ था। हेम बाबू इस
अंचल के एम.एल.ए.
थे, ओड़िशा
सरकार का कैबिनेट मंत्री। सुनने में आया था ध्रुव उनका नज़दीकी आदमी था। हेम बाबू
मन्त्री बनने के बाद कभी इस अंचल में नहीं आए थे। ध्रुव बाबू को किसी तरह इस अंचल
में अपना प्रतिनिधि बना कर चले गए थें। इसलिए अनेक, यहाँ
तक कि बड़े-बड़े ऑफिसर भी मानते हैं ध्रुव बाबू को, मन्त्री
की चलती- फिरती प्रतिमा समझ कर। ध्रुव बाबू शराब के नशे में थे, बातचीत
करने का ढंग और आँखों की भाषा से समझ में आ रहा था। ध्रुव बाबू के इस तरह पीने की
घटना कोलियरी में सभी के लिए बहुत ही साधारण है, कोयलांचल
में आते ही सुन रखा था प्रद्युम्न ने ध्रुव बाबू ने इधर-उधर कुछ लोगों के अभाव
अभियोग सुनने के बाद, जी.एम.
मि.मिरचलानी, प्रोजेक्ट
ऑफिसर मिस्टर मिश्रा और मैनेजर देशमुख साहब को गाली-गलौच करने के बाद अगणी काका की
तरफ देखते हुए पूछने लगा, “क्या बे आज क्या सोच कर यूनियन ऑफिस में आया है?”
यथा-संभव
विनम्र भाव से अगणी काका ने कहा, “मेरा यह पुतरा बदली लोडर में भर्ती हुआ है। टब-चेकर
में काम कर रहा था अभी उसे निकाल कर लोड़िंग में दे दिया गया है।”
“तो
तुम्हारे पुतरे को पता नहीं था जो लोडर में भर्ती हुआ। वह ब्राह्मण का बेटा है।
बी.कॉम पढ़ा है वह घंडा-घसिया की तरह लोड़िंग करेगा।”
“एक
समाजवादी देश में जात-पात क्या होती है। सभी बराबर है। साला अगणी, तुम
तो इतने दिन तक हरिशंकर के पांव पड़ रहा था। साला इतना भी मालूम नहीं था?”
अगणी
काका निर्लज्जतापूर्वक हँसते-हँसते उसकी सारी गालियाँ सहने करने के बाद कहने लगा “आप
कोशिश करो ध्रुव बाबू सब संभव है। और हरिशंकर की बात कह रहे हो, आपका
यूनियन बनने के दिन से मेरा उससे कोई संबंध नहीं है। हेम बाबू हमारा नेता है।
हरिशंकर कौन होता है? हेम
बाबू जिसको कहेंगे वही होगा हमारा नेता।“ ध्रुव बाबू हँसने लगा। और कहने लगा,“क्या तुम्हारा पुतरा हमारी यूनियन का मेम्बर बनेगा?” प्रद्युम्न
की यूनियन वालों के प्रति कोई अच्छी धारणा नहीं थी सभी टाऊटर साले। मज़दूरों का
कोई अगर शोषण करता है सबसे ज्यादा मालिकों से भी ज्यादा तो वे है ये ट्रेड यूनियन
वाले। यहीं है जैसे कि जल्दी पैसा कमाने का सस्ता उपाय। आपके पास यदि गुण्डागर्दी
करने का सामर्थ्य है, अगर
आप थोड़ी हिम्मत जुटा सकते हैं, डरा कर धमका कर श्रमिकों से चंदा वसूल कर सकते हैं और
पुलिस वालों से लेकर कोलियरी के सारे साहब, क्लर्क
आपको शामिल करेंगे अपने सामने बैठने के लिए कुर्सी देंगे।”
प्रद्युम्न
ने तनख्वाह पाने वाले दिन पेमेंट-काउण्टर पर देखा लोगों की भयंकर भीड़। वे आते
थे पैसा वसूल करने के लिए। बाजार में किराने की दुकानदार, कपड़े
के दुकानदार, महीने
में सौ रुपए पर दस रुपए की सूद पर उधार देने वाले पठान और अन्य व्यापारी। मजदूरों
के पेमेंट-काउंटर से बाहर निकलते ही सभी उनके ऊपर झपट पड़ते थे। उन दलों में शामिल
मिलते थे यूनियन वाले भी। हाथ में एक एक रसीद बही पकड़े हुए, पांच-छः
दादा लोग, पास
में उनके दल की उड़ती हुई पताका, यही है यूनियन वालों का परिचय। प्रद्युम्न को हर समय
यही लगने लगता था, लेबर
लोगों के ऊपर झपट पड़ने वाले व्यापारी लोगों के दल की तुलना में यूनियन वाले भी
कुछ कम नहीं थे। क्योंकि, अपने अनुभवों के आधार पर प्रद्युम्न को ज्ञात हो गया
था कि कोई भी लेबर अपनी स्वेच्छा से चंदा नहीं देता है वरन् जबरदस्ती चंदा वसूल
किया जाता है।
अगणी
काका ने यूनियन ऑफिस में ध्रुव खटुआ के सामने निर्लज्जतापूर्वक विनम्र होने का
अभिनय करते हुए कहा-“हो
जाएगा, हुजूर।
अभी तो नया-नया ज्वाइन किया है, तीन-चार महीने हुए हैं।”
ध्रुव
खटुआ ने प्रद्युम्न को पूछा-“तुम्हारा नाम क्या है?”
“प्रद्युम्न।
हाजरी खाते में मेरा नाम समारू खड़िया।”
“ओह!
इमपर्सेशनेशन केस? तब तो
भूल जाओ। एकदम भूल जाओ। कभी भी नहीं हो पाएगा।” कॉलेज
के जमाने में प्रद्युम्न ने एक चुटकुला सुना था। अंग्रेजी में एक जोक था, जिसका
हिन्दी रूपान्तरण इस प्रकार होगा :- अगर कोई स्त्री ‘ना’ कहती है, तब आप समझ लो ‘संभावना’ है। अगर वह ‘देखेंगी’ कहती है तो अर्थ ‘नहीं’ ही
समझना चाहिए। और अगर वह ‘हाँ’ कहती
है तो वह बिलकुल स्त्री ही नहीं है। राजनेता अगर ‘हाँ’ बोलते
हैं, तो
समझ लीजिए वह कह रहा है ‘देखेंगे’। और अगर वह ‘देखेंगे’ कहते हैं, तो जान लीजिए उसकी बात का अर्थ है ‘नहीं’ । और
अगर वह ‘नहीं’ कहता
है, तो वह
बिलकुल राजनैतिक नेता ही नहीं है।
यूनियन
ऑफिस से बाहर निकलते समय अपमान और क्षोभ से टूट पड़ा प्रद्युम्न। मगर उन सभी बातों
की ओर ध्यान दिए बगैर आशावादी स्वर में अगणी काका कहने लगे, “होगा, होगा।
हरामजादा शराबी। मगर पैसे खर्च करने पर कुछ तो होगा जरूर।”
नौकरी
में भर्ती होते समय एम्प्लोयमेंट एक्सचेंज से कार्ड खरीदने के बाबत दो हजार रुपए
अभी भी प्रद्युम्न जुटा नहीं पाया था, अगणी काका को देने के लिए। अब और पैसे खर्च होने की
बात सुनकर थोड़ा डर गया वह। शायद यह बात समझ में आ गई थी अगणी काका को। कहने लगे
वह-“रुपये-पैसों
की चिन्ता मत करो। सब व्यवस्था हो जाएगी।”
व्यवस्था
होने का अर्थ मालूम है प्रद्युम्न को। अगणी काका देंगे और प्रद्युम्न कर्ज के बोझ
तले दब जाएगा तो वह रूनु के साथ शादी करने से इंकार भी नहीं कर पाएगा। वह कुछ भी
नहीं कह पाया। चुपचाप लौट आया था अगणी काका के साथ अपने आवास को।
आज
सुबह उठकर प्रद्युम्न चाय-नाश्ता करने के बाद हॉस्पिटल चला गया और सिक दर्ज करवाकर
दवाई लेकर लौट आया। उसके बाद? कहाँ जाएगा वह? पान
की दुकान पर खड़े होकर सिगरेट लगाने लगा वह। ऐसे वह कभी सिगरेट
नहीं पीता था। दो-तीन कश लगाकर फेंक दी सिगरेट। एक होटल में बैठ कर चाय पीने लगा।
एक परचूनी सामान की दुकान पर बैठकर हिन्दी अखबार पढ़ने लगा। फिर भी समय दस से
ज्यादा नहीं बजा।
कैसे
समय कटेगा प्रद्युम्न का? अगणी काका के क्वार्टर में उसे अच्छा नहीं लगता। रूनु
उसके बॉयफ्रेंड के साथ बाहर “हें हें फें फें” हो
रही थी। उसका ऐसा रंग-ढंग देख कर काकी गुर्राने लगती, अन्यथा
सोनू, रूनु
चूड़ी-रिबन खरीदने के लिए, नहीं तो, फिल्में देखने के लिए पैसों हेतु बर्तन इधर-उधर फेंक
कर झगड़ने लगती, नहीं
तो, सोनू
की किसी पड़ोसी के लड़के के साथ मारपीट होने पर माँ और लड़कियां सभी मिलकर पड़ोसन
के घर झगड़ा करने जाती। कुल मिलाकर पूरा परिवेश प्रद्युम्न को अस्त-व्यस्त लगने
लगता। गांव में उसके घर में कोई ऊँची आवाज में बात नहीं करता था। यहां तक कि
बेरोजगार बड़े भाई के ऊपर माताजी-पिताजी गुस्सा जरूर करते, मगर
फिर भी ऊंची आवाज में चिल्लाकर कभी भी बात नहीं की होगी। आचरण में एक भद्रता और
शालीनताबोध वे लोग पेट में ही सीख कर आए थे, जो
अगणी काका के घर में बिलकुल नहीं था। झगड़ा होने पर वे लोग घर को सिर पर उठा लेते
थे।
क्या
करेगा तब प्रद्युम्न? पोस्ट
ऑफिस जाकर देखा उसने, कोई
चिट्ठी-पत्र नहीं आया था। न ही घर से, और न ही मीनाक्षी के पास से । मीनाक्षी की चिट्ठी के
बारे में सोचते ही उसे याद हो आया कि मीनाक्षी की अंतिम चिट्ठी पन्द्रह-बीस दिन
पहले आई थी और उसका उत्तर भी नहीं दिया था प्रद्युम्न ने। मीनाक्षी को चिट्ठी
लिखने का उचित समय, परिवेश
और सुयोग नहीं मिल पा रहा था प्रद्युम्न को। जब समय मिलता भी है, तो
उसका चिट्ठी लिखने का मूड नहीं होता है। प्रद्युम्न क्या मीनाक्षी को भूल गया है? तब
क्यों पोस्टमेन की तरफ आशा भरी निगाहों से ताकता रहता है, मीनाक्षी
की चिट्ठी के लिए वह? अन्यथा
मीनाक्षी को चिट्ठी लिखने में उसका आलसपन या अनिच्छा?
प्रद्युम्न
के अंदर क्या कुछ परिवर्तन हो रहा है? पुराने प्रद्युम्न के ऊपर कहीं से शिवली का आवरण जम
गया है? इतना
आवरण जम गया है कि प्रद्युम्न और नहीं खोज पा रहा है उसके नीचे असली और पुराने
प्रद्युम्न को? तब वह
और किसी दूसरे प्रद्युम्न में परिणत होने के लिए बैठा है? और
दूसरा प्रद्युम्न का मतलब समारू खड़िया तो? इस
समारू खड़िया का तब सर्वेश्वर मिश्रा या मीनाक्षी के साथ कोई संबंध नहीं?
पोस्ट
ऑफिस से बाहर आकर प्रद्युम्न ने और एक बार देखा कॉलोनी की ओर। दो-तीन हजार परिवार
रहने वाली, एक
छोटी-सी कॉलोनी। अधिकांश घरों में एस्बेस्टस की छतें। अधिकांश कच्ची सड़कें। चारों
तरफ एक दारिद्रय और मलिनता की छाया। इस विशाल पृथ्वी के भीतर कितनी नगण्य, कितनी
क्षुद्र है यह कोलियरी। और जिसके अंदर बिताने होंगे प्रद्युम्न को उसके जीवन के और
पैंतीस साल।
कॉलोनी
से पिट और पिट से कॉलोनी के बीच दो किलोमीटर का रास्ता चल कर तय करना पड़ता है अति मोनोटॉनस रास्ता हर-दिन। कभी-कभी कोई मार्केट जाता है। उसे
छोड़ कहीं और जाने का उपाय नहीं है। सारा जीवन आपको कैद होकर रहना पड़ेगा पारवाहार
कोलियरी की कॉलोनी के भीतर। नहीं तो, कितना बड़ा जीवन पड़ा हुआ है, देखो।
पारवाहार कोलियरी के उस पार कितनी विशाल दुनिया आपकी प्रतीक्षा कर रही है।
प्रद्युम्न आशा लगा कर बैठा है मीनाक्षी नाम की, पृथ्वी
पर सबसे कमसीन, नारी
के हृदय का। उन सारी बातों को भूल जाएगा प्रद्युम्न।
लाल
रंग की स्टेट बसों को कटक, भुवनेश्वर या पुरी जाता देख कर मन हाहाकार करने लगता
है प्रद्युम्न का। मन होता है उठ कर बैठ जाने के लिए बस में। रात खत्म होते ही वह
पहुंच जाएगा पुरी में। कितने दिन बीत गए समुद्र को देखे हुए, बडदांड
(पुरी मंदिर के सामने वाली बड़ी सड़क) को देखे हुए, अभड़ा
(जगन्नाथजी का भोग) खाए हुए। सातशंख यात्रा दल की रिहर्सल भी तो नहीं देखी। कितने
दिन बीत गए, मीनाक्षी
को मिले हुए। अपने जीवन में एक बार ही सोया था वह मीनाक्षी की गोद में अपना
सिर रख कर। दो बार ही चुम्बन लिया था मीनाक्षी का। जबकि इतने वायदे तोड़ कर किस
तरह निर्वासन को स्वीकार कर लिया प्रद्युम्न ने। इस निर्वासन में न केवल अपनी
परिचित मिट्टी, परिवेश
और लोगों को छोड़ कर आया प्रद्युम्न, बल्कि अपने असली नाम और परिचय को भी छोड़ कर आ गया
वह।
“मैं
नहीं समझ पा रहा हूं, प्रद्युम्न, तुमने
समारु खड़िया के नाम से नौकरी कर ली तो क्या हो गया? प्रद्युम्न
के जान-पहचान वालों के अंदर सभी पारवाहार कोलियरी से परिचित हैं। अगणी काका, इलेक्ट्रिशियन-नन्द
बाबू, पिओन-मित्रभानू, सिक्यूरिटी
गार्ड- रामनारायण सिंह, ड्राइवर-राम अवतार सभी के लिए प्रद्युम्न एक कौतूहल
का विषय था।”
प्रद्युम्न
नहीं समझ पा रहा था उसका दुख। कहने की कोशिश करता था वह-“मेरा
भी एक नाम है। मैं प्रद्युम्न हूँ। मेरे पिताजी का भी एक नाम है। मेरा एक
स्वतन्त्र परिचय है। उन सब को भूल कर मैं समारू खड़िया हो जाऊँ?” क्या
हो जाएगा उससे? मैंने
तो तुमको प्रद्युम्न के रूप में इतने दिनों तक बचा कर रखा था, मेरा
वह बचाकर रखने का काम बेकार हो जाएगा?
कौतूहलवश
सभी देखते प्रद्युम्न की तरफ। जैसे आज तक किसी ने ऐसे आदमी को देखा नहीं था। राम
अवतार कहने लगता था-“क्या
हो गया उससे? मेरा
खुद का नाम है चन्द्रशेखर। कंपनी के जमाने में मैं भर्ती हुआ था। उस समय आजकल की
तरह इतने नियम-कानून नहीं थे, और न ही थे नौकरी में भर्ती होने के लिए इतने झमेले।
मैनेजर साहब ने एक बार पूछा -तुम्हारा
नाम क्या है? मैंने
अपना नाम बता दिया। चन्द्रशेखर नाम पता नहीं, मैनेजर
साहब को क्यों खराब लगा। साहब लोग हैं तो! कब क्या
मर्जी। कहने लगे, आज से
तुम्हारा नाम राम अवतार । देख, मेरी तरफ देख, मुझमें
कुछ परिवर्तन हुआ है? जीवन
के बीस साल तक मैं चन्द्रशेखर था। बाकी पच्चीस साल राम अवतार। और पन्द्रह साल या
मरते समय तक राम अवतार होकर रहूंगा। मुझे तो ओवर-टाइम मिलाकर दो हजार रुपए मिलते
हैं। शादी-ब्याह हो गया है। लड़की की भी शादी कर दी है। क्या नुकसान हो गया मेरा? अभी
कोई चन्द्रशेखर नाम से मुझे पुकारता है तो नाम मुझे अनजान-सा लगने लगता है। याद भी
नहीं आता है कि किसी दिन वह मेरा नाम हुआ करता था। मान
लो तुम्हारा नाम समारु खड़िया न होकर ध्रुव मिश्रा होता या ध्रुव खटुआ । तुम्हारे मन
में दुख लगता? शायद
थोड़ा-बहुत मन में लगता। मगर तुम मान जाते। यह बात कही थी ध्रुव बाबू ने यूनियन
ऑफिस में। फिर भी खड़िया टाइटल जो भी हो आदिवासी टाइटल है, तुम्हारे
ब्राह्मणवाद संस्कार विद्रोह कर बैठते हैं। है न?”
प्रद्युम्न चुप रह गया था। किस तरह वह समझा पाएगा
अपने दुख को। शायद ध्रुव बाबू की बात ही ठीक है। या उसकी बात ठीक नहीं है। या फिर
शायद प्रद्युम्न नहीं जानता है अपने असली दुख को। शायद वह इतना ही जानता है, प्रद्युम्न
मिश्रा के समारू खड़िया हो जाने पर उसके मन में आता होगा, कहीं
उसका निजत्व खो न जाए, उसकी
स्थिति न मर जाए, जैसे
कि प्रद्युम्न मिश्रा की कहीं मृत्यु हो गई है और उसके बदले में जी उठा हो समारू
खड़िया। और प्रद्युम्न मिश्रा की मृत्यु का शोक समारू खड़िया भूल नहीं पा रहा हो।
इस मृत्यु के शोक की क्या कोई यथार्थता है-इस विषय पर क्या प्रद्युम्न किसी को
समझा सकेगा। नहीं, वह
नहीं समझा सकेगा। उसे मालूम है, वह बिलकुल भी किसी को नहीं समझा पाएगा। अगणी काका की
लाइन में रह रहे माइनिंग सरदार चतुर्भुज ने प्रद्युम्न को कहा था कि प्रोविडेंट
फण्ड के पैसों पर कभी समारू खड़िया अथवा बइठू खड़िया नाम के असली आदमी आकर दावा कर
सकते हैं। इसलिए सबसे बड़ी बात है, प्रोविडेंट फण्ड के खाते में अपना नाम बदलवाना।
चतुर्भुज
ने उसके लिए उसे उपाय भी बता दिए थे। सब-डिवीजन कोर्ट में जाकर वकील को दस-पन्द्रह
रुपए देने से वह एक एफिडेविट बना देगा। एफिडेविट में यही बात होगी, मैं
समारू खड़िया, पिता
बेइठू खड़िया- एतदद्वारा अपना नाम प्रद्युम्न मिश्रा पिता का नाम सर्वेश्वर मिश्रा
में बदल रहा हूँ। उसके बाद मेरा परिचय सभी सरकारी कागजों में इसी नाम से जाना
जाएगा। एफिडेविट करने के बाद कोलियरी मैनेजमेंट में दरखास्त करनी होगी और यूनियन
वालों को पकड़ना ही पड़ेगा।
प्रोविडेंट-फंड
के वृद्ध क्लर्क शर्मा बाबू ने अपने चश्मे के नीचे से तिरछी निगाहों से देखते हुए
ध्यानपूर्वक सुना था उन बातों को। प्रद्युम्न तैयार नहीं हुआ, शर्मा
बाबू के कहने पर। चतुर्भुज माइनिंग सरदार ने यह बुद्धि दी है? चतुर्भुज
के भेजे में दिमाग है? अपना
नाम अंग्रेजी में लिखना छोड़ कर अंग्रेजी का एक भी शब्द लिखना नहीं जानता है। और
वह फिर बुद्धि सिखाएगा? उसकी बात में मत आओ। एक बार अगर मैनेजमेंट को पता चल
गया कि तुम्हारा नाम समारू खड़िया नहीं है, तो बस
तुम्हें इमपर्सनेशन केस
में फंसा देगा। इमपर्सनेशन- एक प्रकार की ठगी का मामला है, जानते
हो? IPC की धारा 420 का
अपराध है वह। उसके लिए तुम्हें जेल भी जाना पड़ सकता है, जानते
हो? जेल? अगणी
काका सुनकर ताछल्य भरी हंसी हंसने लगा, “कितने लोगों को जेल भेजेगी मैनेजमेंट? इस
कोलियरी में सारे बिहारी, गोरखपुरी, इलाहाबादी किसी लोकल लोगों के नाम पर इंटरव्यू देकर
नौकरी कर रहे हैं। मैनेजमेंट क्या नहीं जानती है? सब
जानती है। रूको, आज
तुम्हें हरिशंकर बाबू के पास लेकर जाऊंगा।”
हरिशंकर
बाबू मतलब हरिशंकर पटनायक। यूनियन के भूतपूर्व सेक्रेटरी। प्रद्युम्न ने एकाध बार
देखा था उस आदमी को। ऐसा कोई खास नजर नहीं आ रहा था। इसके अलावा, वह तो
अब यूनियन में नहीं है। मैनेजमेंट क्यों उसकी बातें सुनेगा? फिर, यूनियन
वालों पर प्रद्युम्न की भावना अच्छी नहीं है। कुछ दिन पहले ही अगणी काका उसे
यूनियन ऑफिस की ओर ले गए थे, वहाँ शराबी ध्रुव बाबू का व्यवहार अभी तक भूला नहीं
था प्रद्युम्न। प्रद्युम्न में अगर क्षमता होती तो इन भांड, असाधु
और स्वार्थपरायण यूनियन वालों को रास्ते में खड़ा करके चाबुक से पीटता वह। उसे
बिलकुल भी श्रद्धा नहीं थी उनके ऊपर।
मगर
अगणी काका को वह अपने मन के भीतर की इतनी गूढ़ घृणा और अवशोष की बात नहीं कह पाया
था प्रद्युम्न। केवल इतना ही पूछा था, “मुझे टब चेकर से लोड़िग मे बदल दिया है, उसके
बारे में क्या करेंगे?”
अगणी
काका ने कहा था, “होगा!
होगा! हरिशंकर बाबू से बात करेंगे। वह पक्का आदमी है। अभी भी जी.एम., डिप्टी सी.एम.ई, मैनेजर
सब उन्हें देखकर सम्मान देते हैं। उनकी बात नहीं सुनेंगे क्या वे लोग?”
अगणी काका की बातें केवल झूठे भरोसे के लिए? क्या
पता। प्रद्युम्न नहीं समझ पाया। उसके सीने के अंदर भयंकर असहायता लगने
लगी। अपने व्यक्तिगत सुख-दुखों, आशा-आकांक्षाओं की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। या
फिर सभी लोग अपनी अपनी परिधियों में इतने व्यस्त हैं कि दूसरी तरफ बाहर झांकने तक
की फुर्सत नहीं है। अगणी काका से दूर
चला गया था
प्रद्युम्न। यह दुनिया बहुत बड़ी है, दूर-दूर तक विस्तार है इसका। मगर इस दुनिया में
प्रद्युम्न अकेला, पूरी
तरह अकेला। उसके सुख-दुख, आशा-आकांक्षा, स्वप्न, सफलता
और जीने-मरने के अंदर प्रद्युम्न अकेला।
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