प्रथम अनुच्छेद


प्रथम अनुच्छेद
चारों तरफ परिवेश में किस तरह मैला आवरण छाया हुआ था, पता नहीं। सब कुछ ठीक उसी तरह था, टेबल, कुर्सी, एम.टी.के. लोगों का ऑफिस, लैंप-केबिन,बैटरी से चार्ज होने वाला बत्ती-घर। ऊपर में टिन की छत, पास में बंकर, सब ठीक था। फिर भी परिवेश में पर्याप्त उजाला नहीं था, किसी उदास चेहरे की तरह।
बाईं ओर लैंप केबिन का दरवाजा, दाईं ओर एम॰टी॰के. काउंटर। अगर आप कोयले की खदान में काम करते हो, तो आपको एम॰टी॰के. के पास जाना ही होगा और उस लिखे हुए फॉर्म वाले रजिस्टर के ऊपर झुकना होगा, वहाँ आपको पुराने तरीके से हाजिरी लगवानी होगी। उसके बाद एम॰टी॰के. आपको कागज की एक स्लीप आगे बढ़ा देगा, जिसे लेकर आपको लैंप-केबिन में जाना होगा।उस स्लीप को काउण्टर में दिखाने पर आपको एक अण्डर-ग्राउंड लाइट मिलेगी, बैटरी के साथ। आपके सिर पर हेलमेट, लाइट और कमर पर बैटरी लगाने से आप बन जाओगे कोयले की खान का एक श्रमिक, जैसा कि हमारे उपन्यास का पात्र प्रद्युम्न बन गया था।
प्रद्युम्न, अवश्य यहाँ उसका नाम प्रद्युम्न मिश्रा नहीं है। उसका नाम है समारू खड़िया, पिता का नाम बइठु खड़िया, वह पढ़ा-लिखा नहीं है। वह शेड्यूल्ड ट्राइब का है। अंडरग्राउण्ड से बाहर आने पर सरफेस में प्रद्युम्न अलग आदमी बन जाता है। तब उसका नाम हो जाता है प्रद्युम्न मिश्रा। पिताजी का नाम सर्वेश्वर मिश्रा, रिटायर्ड स्कूल-मास्टर। घर पुरी जिले का शासनी गाँव। घर में माता-पिता के सिवाय उच्च-शिक्षित और उम्रदराज बहनें और बेरोजगार शादी-शुदा बड़ा भाई, भाभी और पांच वर्ष की छोटी भतीजी- सभी हैं। फिर भी एम॰टी॰के. के काउंटर पर खड़ा होने पर, फार्म-सी में लिखे हुए नाम को देखे बिना मांइस टाइम कीपर प्रद्युम्न नाम से ही पुकारता है। बाद में उसे अपनी गलती का अहसास होता है। कोयला-खदान के पिटहेड अंचल में आते ही उसका अपना परिचय बदल जाता है।
दोनों तरफ बैटरी चार्ज करने वाली मशीन के बीच में एक लंबा रास्ता जाता है और उस रास्ते में आगे जाने से आपको मिलेगा एक छोटा-सा दरवाजा, बिना किवाड़ लगा। वास्तव में वही खदान के भीतर जाने का मुख्य रास्ता है। वहाँ एक आदमी खड़ा होता है, उसे बोडी-चेकर कहते हैं। वह आपके जेब में हाथ लगाकर चेक करता है कि कहीं आप बीड़ी, सिगरेट, दियासलाई इत्यादि भीतर तो नहीं ले  जा रहे हैं।
प्रद्युम्न कोयले की खदान में घुसने से पहले सोचा करता था, किताब में पढ़ी या फिल्म में देखी हुई लिफ्ट से खान के अंदर जाना पड़ेगा। मगर यहाँ आकर कोयले की खान देख कर वह निराश हो गया। न कोई पुली थी, न लिफ्ट। वरन एक द्वार से सुरंग के अंदर जाने पर एक लंबी सीढ़ी अंदर मिलती है, उस सीढ़ी से उतरने पर आपको मैन लाइन मिल जाती है। वहाँ से शुरु होता है-अंडरग्राउण्ड का राज्य। वहाँ प्रद्युम्न मिश्रा नामक लड़के का कोई अस्तित्व नहीं है। वहाँ है समारू खड़िया, उसका डिजिगनेशन है-बदली लोड़र। उसको पहले ओवरमेन लोडिंग में दे रहा था। अवश्य लोडिंग में ज्यादा पैसे मिलते थे। किन्तु लोडिंग में ज्यादा परिश्रम। प्रद्युम्न मेहनत नहीं कर पा रहा था, इसलिए गांव के संबंध में लगने वाले दादा, जो यूनियन ऑफिस उठा-बैठा करते थे, ने मैनेजर को सिफारिश कर प्रद्युम्न को एक टब-चेकर के काम में लगा दिया था।
टब-चेकर पोस्ट में केवल बाबूगिरी का काम। आपको टिम्बर-कुली, ड्रेसर, होलेज-ट्रामर के अलावा टब-राइडर पोस्ट का काम दिया जाता तो कोयले की काली धूल शरीर के सभी अंगों पर लग जाती और आप कोयले के मजदूर की तरह काम करते नजर आते। उससे बेहतर आप एक खाता और पेंसिल लेकर टबों के आऊटपुट और इनपुट का हिसाब रखोगे, सबसे अच्छी बात और इस नौकरी में आपको ऊपरी दो पैसा भी मिलेगा-इससे और अच्छा काम क्या हो सकता है। प्रद्युम्न ने कोयले की खदान में आने से पहले सोचा था-कहानियों की किताब अथवा सिनेमा में जिस तरह गरीबी और शोषण दिखाया जाता है, वैसा कुछ भी नहीं। लोगों के पास पैसा है, यथेष्ट पैसा। फिर भी उसके साथ गरीबी है। कोई नहीं जानता है, पैसे कैसे खर्च किए जाए ? अधिकांश लोगों के घर में रस्सी वाले खाट के सिवाय पलंग तक नहीं थे, घर में पर्दे भी नहीं थे, औरतों के लिए अच्छी साड़ियाँ भी नहीं थी, जबकि वे लोग महीने में दो हजार वेतन पा रहे थे, सोचकर प्रद्युम्न आश्चर्य चकित हो रहा था।
आजकल और आश्चर्य नहीं होता है उसे। प्रद्युम्न को कोयले की खान का यह नया संसार, जो कभी उसे पहले आश्चर्य-चकित करता था, अब देख-देख कर आदत पड़ गई थी। पहले जब वह गांव के रिश्ते में लगने वाले काका 'अगणी होता' से इस कोयले की खान का पता लेकर यहाँ पहुँचा था, अगणी होता ने सिर पर हाथ रखकर कहा था: " तुम पागल हो गए हो? कोयले की खान में नौकरी पाना इतना सस्ता है? बदली लोडर की नौकरी के लिए बी.ए., एम.ए. पास लोगों की भीड़, उस पर एम्प्लाइमेंट एक्सचेंज में अंगूठा लगाकर अपने आपको अनपढ़ कहकर नाम रजिस्ट्री कराओ। एक्सचेंज बाबू को पांच सौ/हजार देकर अपना नाम इण्टरव्यू के समय निकलवाओ। इण्टरव्यू में लेबर ऑफिसर, पर्सनल ऑफिसर को पांच सौ/हजार रुपये हाथ खर्चा के लिए दो। उसमें पास करने पर मेडिकल फिटनेस सर्टीफिकेट पाने के लिए सौ-दो सौ रुपए हाथ खर्च दो। हाइड्रोसिल अथवा आँख कमजोर होने पर बात यहीं खत्म नहीं होती। दो-तीन हजार डॉक्टर मांगेगा तुम्हारे फोटो सर्टीफिकेट के लिए। यह क्या एक दिन की बात, कि आए और नौकरी मिल गई?"
प्रद्युम्न समझ गया था, उसके इस तरह पहुंच जाने से काका-काकी खुश नहीं हुए थे। उसने देखा, उसकी पीठ पीछे काका-काकी कानाफूसी कर रहे थे। अवश्य ही उसे देखकर वे चुप हो गए थे। प्रद्युम्न की इच्छा हो रही थी, वापिस लौट जाने के लिए। मगर लौट जाने की बात सोचकर वह असहायता से टूटा जा रहा था। क्यों? किस वजह से?
अगणी को काका ने पूछा था-"सर्वेश्वर भाई के पास किस चीज की कमी हैं, कि तुम इस घटिया जगह पर काम करोगे?"
भले ही, प्रद्युम्न के पिताजी बहुत पैसे वाले नहीं थे। मगर वह स्वच्छल थे। बाहर के लोग जरूर सोचते होंगे कि वह धनी आदमी हैं। क्योंकि गांव में उनका ऐसबेस्टास वाला घर है, फर्श सीमेंट के प्लास्टर वाली। दो तालाब, पचास-साठ नारियल के पेड़ और पांच-छः एकड़ धान के खेत और उसके अलावा, पुरी टाउन की बलगंडी बस्ती में किराए पर दिया हुआ एक पक्का घर ।
ये सब बाहरी दिखावे के लिए हैं । प्रद्युम्न जानता है, वह भीतर से पूरी तरह खाली है । घर में तीन अविवाहित बहिनें, एम.ए.पास कर बैठी हुई हैं । शादी नहीं हो पा रही हैं। बड़ा भाई बेरोजगार, गांव से बाहर जाने के लिए राजी नहीं हो रहा है, या खेती-बाड़ी भी नहीं संभालता है। उसकी पत्नी और बेटी का घर-संसार पिता, माता और प्रद्युम्न के साथ दो नौकर, चार जोड़ी बैल, गर्भवती होने पर भी तीन महीने दूध देने वाली दो गाएं, एक नौकरानी और छोटा-मोटा काम संभालने के लिए एक दस-बारह साल का एक लड़का, इतने बड़े घर-संसार को चलाने के लिए पांच-छः एकड़ धान की जमीन और पचास नारियल पेड़ अथवा पूरी टाऊन के घर का किराया भी कम पड़ता है।यह बात बाहरी लोगों को समझाने पर भी समझ में नहीं आती है। प्रद्युम्न जानता है, यह बात।
प्रद्युम्न को घर में उसकी बहिनें सोचती हैं कि वह आलसी और स्वार्थी है । भाभी सोचती है कि उसका पेट ही सब-कुछ है। पिता ने आगे बहुत भरोसा किया था प्रद्युम्न के ऊपर। अब बी.ए. फेल होने पर उनकी धारणा बन गई है- यह भी बड़े भाई की तरह घर में बैठा रहेगा। इसलिए वह विरक्त होने लगे। दोस्त लोग प्रद्युम्न को कभी भी इज्जत नहीं देते थे,उसके कमजोर स्वास्थ्य के लिए। घर पर आते ही पिता, माता, भाई, भाभी और बड़ी बहिन की फरियाद रूक, तुम्हें कहा था बाजार से मेरी साड़ी ड्राइक्लीन कर लाने के लिए, रूक, मैंने कहा था मेरी चिट्ठी डाक में भेजने के लिए, डाली या नहीं? कल लास्ट डेट है एप्लीकेशन पहुंचने की। 'रूक !, मार्केट से मेरी सिगरेट लाने के लिए कहा था, लाया या नहीं? 'रूक !, तीन सौ नारियल लेकर हरिया साक्षी गोपाल गया है, तुम थोड़ा जाकर देख लेता कि वह किस भाव से बेच रहा है? रूक, यहाँ कण्ट्रोल में चीनी आकर खत्म हो गई, तुमने बताया नहीं? काका, मेरी साहित्य की किताब मार्केट में आई है, लाकर दी नहीं? प्रद्युम्न क्लांत हो जाता था। मार्केट से गांव डेढ़ मील की दूरी पर और प्रद्युम्न के पास केवल साइकिल। जितना भी करने से कोई न कोई काम बच जाता था। प्रद्युम्न समझ नहीं पाता था कि सारे काम इतने जरूरी कैसे हो जाते हैं?
प्रद्युम्न जन्म से ही अस्थि-पंजर-सा दिखने वाला दुबला-पतला लड़का था। किसी भी प्रकार का पेंट-शर्ट उसे फिट नहीं आता था। सिर के बाल सारे पतले और रुग्ण। इसलिए वह बाहरी लोगों के सामने फ्री नहीं हो पाता था। हर समय बात करते समय उसे लगता उसको कमजोर स्वास्थ्य देखकर लोग उसकी अवहेलना कर उपेक्षा करेंगे और उसके मुंह से आवाज नहीं निकलती थी। मन के भीतर की सारी बातें घुल-मिल जाती थी। हड़बड़ा जाता था प्रद्युम्न।
उसे देखकर कोई खातिर नहीं करता था। दुकान में सामान मांगने से दुकानदार अनसुना कर अपने काम में लग जाता था। होटल में नौकर उसके टेबल के चारों ओर घुमने पर भी उसकी   मुराद के अनुसार नाश्ता लाकर नहीं देते थे। बस में कण्डक्टर उसे आप की जगह तुम भी नहीं कहकर तू से संबोधित करता था। इस सब से बहुत लज्जित अनुभव करता था प्रद्युम्न।
प्रद्युम्न के साथी भी उसे अपने पास नहीं बुलाते थे। उसका कमजोर स्वास्थ्य उन लोगों के लिए मजाक का विषय बनता था। प्रद्युम्न भी मांस का बना आदमी फील करता था, वह अपमानित अनुभव करता था, ये बातें दोस्तों की समझ में नहीं आती थी। किसी भी ग्रुप डिस्कशन में उसके मत को महत्त्व नहीं दिया जाता था। प्रद्युम्न की उम्र उस समय थी केवल इक्कीस साल। बी.ए.फेल होने के बाद से सभी ने उसे पूछना प्रारंभ कर दिया कि अब क्या कर रहे हो? कुछ न कुछ तो करो? विवाहित बड़ी बहिन घर आने से, बुलाकर समझाने लगती थी, पिताजी की उम्र बढ़ रही है। घर में तीन-तीन अविवाहित बहिनें हैं। बड़े भाई को देख रहे हो, वह कुछ नहीं कर रहा है। घर की जमीन से जो आय हो रही है, उससे इतने बड़े घर का भरण-पोषण करने में कम पड़ रहा है। उसके अलावा, पिताजी की उम्र और ताकत बची है काम करने की? तुम क्या करने की सोच रहे हो? बिजनेस करोगे या नौकरी?
शादी नहीं हुई मझली बहिन कहती, 'रुक' तो इतना आलसी है कि यह बिजनेस नहीं कर पाएगा। बिजनेस के लिए स्मार्टनेस दरकार और बुद्धि की भी जरूरत है। 10 से 4 तक ड्यूटी ही इसके  के लिए ठीक रहेगी।
तभी भाभी कहने लगती, तुम सुबह दस बजे तक सोए रहोगे तो न बिजनेस कर पाओगे, न नौकरी। छोटी बहिन भी कहती, रुकु, को एक चिट्ठी ड्रॉप करने को कहने से मना कर देगा। उसके हाथ से साग भी नहीं बनेगा।
ऐसे ही एक दिन पिता ने दीर्घश्वास लेते हुए कहा-मैंने सोचा था कि रुकु एक दिन मनुष्य बनेगा। वह भी अपने बड़े भाई की तरह अपदार्थ हो गया। इसे कहते हैं भाग्य। भाग्य-दोष नहीं होने पर ऐसा होता।
प्रद्युम्न को उस दिन बहुत दुख लगा। रोने लगा। पिता के सामने जाकर कहने को इच्छा हो रही थी-मेरी उम्र केवल इक्कीस साल है। बी.ए. परीक्षा भी पास नहीं की। मेरे दोस्त अभी भी पढ़ रहे हैं। यूनिवर्सिटी क़ॉलेज में जा रहे हैं। इधर-उधर घूम रहे हैं। कोई भी किसी रोजगार के बारे में सोच भी नहीं रहा है। मगर आपने कैसे सोच लिया कि इस उम्र में मैं कमाना शुरू कर दूंगा। आप तो सोच सकते थे कि लड़का एम.ए. पढ़ेगा, एम.फिल करेगा। उसके बावजूद.... फिर आप मुझे इतना जल्दी......।
इस कोलियरी में अगणी काका के अस्बेस्टास छत वाले छोटे-छोटे दो कमरों वाले माइन्स क्वार्टर के एक कमरे में रस्सी वाले खाट पर सोते हुए प्रद्युम्न ने सुना था दूसरे कमरे में काका-काकी की फुसफुसाहट में होने वाली बातचीत और ठीक उसी पल में सोच लिया था उसने अपने आगामी दिनों का प्लान और प्रोग्राम।
गांव में कभी भी रसोई घर में नहीं जाने वाला प्रद्युम्न, कभी भी अपने हाथ से पानी का लोटा नहीं उठाने वाला प्रद्युम्न-दूसरे दिन घर में काम में लग गया था काकी का मन जीतने के लिए। कोयलांचल में प्रचलित बड़े मुंह वाले विराट चूल्हे को किस तरह जलाया जाता है, किस तरह बुझाया जाता है, किस तरह कपड़े धोएं जाते हैं, किस तरह रोटी सेंकी जाती हैं, रोटी सेंकने से दाल छौंकने तक इस तरह साप्ताहिक बाजार से परवल खरीदने तक सारे काम अपने जिम्मे ले लिए थे प्रद्युम्न ने। इतना उत्साह कहां से आ गया उसमें? गांव में तो एक बार बस स्टेंड बाजार से घर लौटने पर वह थक जाता था, इतना थक जाता था कि फिर से बाजार जाने के लिए कहने से वह चिड़ जाता था मगर यहां ?
अण्डरग्राउण्ड का फिर अलग राज्य। अंधेरे में जलता प्रकाश सब म्रियमाण। सामने हॉलेज लाइन के ऊपर दौड़ती टब-गाड़ियाँ। कहीं धमाके की आवाज-विस्फोटन की। धरती दहल जाती थी। दौड़ने लगती थी काली-काली छायाएं। सिर पर जलती हुई रोशनी हेलमेट के नीचे चेहरा अंधेरे में छुप जाता था पहले-पहल अण्डरग्राउण्ड में आकर लोगों को पहचानने में कष्ट हो रहा था प्रद्युम्न को। सभी चेहरे एक जैसे दिखते थे अब आदत में शुमार हो गया था यह अंधकार। अब वह पहचान पा रहा था लोगों को और रास्तों को।
कन्वेयर के पास टेब चेकरों का ऑफिस। दो एक्सेप्लोजिव रखने वाले खाली लकड़ी के बक्सों से बना टेबल और एक लकड़ी के तने की चेयर। सिर के ऊपर एक मर्करी लाइट। टेबल पर पड़े दो- तीन मैले रजिस्टर। प्रद्युम्न ने देखा रिले '' का टब चेकर अनंत और चार्ज नहीं दे रहा है। उसकी जगह और कोई नया आया है। उस आदमी ने प्रद्युम्न को देखकर पहले ध्यान नहीं दिया। वह रजिस्टर पर झुककर कुछ हिसाब करने लगा।
प्रद्युम्न नहीं समझ पाया, पिछली शिफ्ट में अनंत आया नहीं, इसलिए यह आदमी ड्यूटी कर रहा है या अनंत इस आदमी को चार्ज देकर चला गया। प्रद्युम्न कुछ समय खड़े रहकर पूछने लगा-"क्या रिले '' में काम कर रहे हो?" आदमी ने सिर ऊपर न उठाकर अवहलेना-पूर्वक कहने लगा-"रिले 'बी' में।"
 "रिले 'बी' में मुझे काम करना चाहिए। आप कौन? आपका डिजिगनेशन? यहाँ क्यों बैठे हो?" आदमी ने अपना सिर ऊपर उठाकर देखा। चेहरे पर निर्मम कठोरता के भाव। जैसे लड़ने के लिए पहले से ही तैयारी कर आया है। कहने लगा-"ओवरमेन ने कहा है। आज से मैं यहां टब चेकर का काम करुंगा। मेरा डिजिगनेशन है जनरल मजदूर। मैं तुम्हारी तरह बदली लोडर नहीं हूँ। परमानेंट वर्कर। और कुछ पूछना चाहते हो? जाओ, ओवरमेन को जाकर पूछो। मुझे अपना काम करने दो।"
अपमान से प्रद्युम्न का चेहरा लाल-पीला हो गया। कोलियरी के अधिकांश लोग इतने  अभद्र! एक साधारण-सी बात को भद्र तरीके से कह नहीं सकते। व्यक्तिगत आचार और व्यवहार में कहीं न कहीं अभद्रता हर जगह छुपी हुई है।
अगणी काका ने मैनेजर के साथ बात करके उसे टब-चेकर में रखा था। अब फिर क्या हो गया? अगर उसे लोडिंग के लिए ओवरमेन भेज देगा, तब टबगाड़ी में लोड़ करना उसके लिए बहुत कष्टप्रद होगा। पिट से बाहर निकलते समय कमर और कंधे बुरी तरह से दर्द करने लगते थे। लोडिंग करने जाने की बात सोचने मात्र से थर्रा गया था प्रद्युम्न। इतनी मेहनत वह नहीं कर पाएगा। इसके अलावा, लोडिंग को जाते समय वह अपने आप को कुली की तरह महसूस करता है।
 प्रद्युम्न जानता था उसकी यह असहायता यहाँ और कोई नहीं समझेगा। यह ओवरमेन वहाँ बैठकर ड्यूटी डिस्ट्रीब्यूट कर रहा है, उसको प्रद्युम्न समझा पाएगा कि पुरी जिले का शासनीआ परिवार का बी.ए.फेल लड़का, जिसने कभी भी हल जोतना तो दूर की बात, जिसने कभी भी कुदाली से मिट्टी खोदी तक नहीं, हंसिया पकड़कर फसल काटी नहीं, वह फिर आज कोयला लोड़ करेगा टब गाड़ी में? यह दृश्य कितना पैथेटिक होगा प्रद्युम्न की जगह पर खड़े होने पर समझ में आएगा, किन्तु ओवरमेन से लेकर मैनेजर तक कोई भी समझ नहीं पाया।
तथापि ओवरमेन के पास वह गया। ओवरमेन के पास भीड़ लगी हुई थी। देहाती, मफसली और कोयलांचल की टिपीकल बस्ती के रहने वाले श्रमिकों की भीड़। फटे हॉफपैंट और गंदी लुंगी के उपर बेल्ट और बैटरी। शरीर पर काली-मैली गंजी। हेलमेट भी मैला, काले दागों से विवर्ण। उन लोगों की भीड़ में ओवरमेन बैठा हुआ था राजा की तरह। यह कहीं भी पढ़ा-लिखा नहीं। यह कंपनी के जमाने में लोड़र के रूप में भर्ती हुआ था. अभी बढ़-बढ़कर ओवरमेन बन गया। अभी बड़ी मुश्किल से अपना साइन करना सीखा है। उस मूर्ख आदमी के पास हाथ जोड़ कर खड़े होना सोचने मात्र से उसका मन शोक की धूल से धुंधला होता जा रहा था। तथापि खड़ा रहा प्रद्युम्न। भीड़ खत्म होने के बाद ओवरमेन ने उसकी तरफ देखते हुए कहा- "अरे, ड्यूटी में क्यों नहीं गए? तुम्हारा क्या नाम है?"
प्रद्युम्न की दुनिया।वह अपना नाम बता रहा था। मगर संभलकर कहा, समारु खड़िया। बदली लोडर।
ओवरमेन ने अपना खाता देखकर कहा, "जा, जा लोडिंग करने जाओ। फाइव लेवल 17 डिप सिक्स्थ डिस्ट्रिक्ट में ब्लास्टिंग हुआ है। तुम्हारा पार्टनर है भीमसेन बैरागी। जाओ, गाड़ी लोड करो, जाओ।" प्रद्युम्न ने प्रोटेस्ट किया, "मगर मैं तो टब चेकर में जाता था।"
ओवरमेन हंसने लगा- ठट्ठा की हंसी। क्रूर, अभद्र हंसी। चिढ़ाते हुए कहने लगा, "टब-चेकर में जाते थे? जाते थे तो क्या हुआ? जैसे कि टब-चेकर का डिजिगनेशन मिल गया हो, परमानेंट। साले, बदली। जहाँ भी दिया जाएगा, वहाँ काम करोगे। अलबत्ता काम करोगे। लोड़िग करोगे, जाओ। क्या कह रहे थे कि टब चेकर में काम करता था।"
ओवरमेन की गाली सुनकर दांत खींचकर रह गया प्रद्युम्न। नौकरी करने से पूर्व वह बहुत सेंसीटिव था। साथियों की मजाक, बहिनों की कड़वी बातें,पिताजी की डांट-फटकार सबको दिल में पकड़कर रख लेता था। तीन-चार दिन तक उसका मन उदास रहता था। अब उसका यहाँ आकर अभ्यास हो गया था। मालूम पड़ गया था नौकरी में गाली-गलौज तो सुनना ही पड़ेगा। इन सब चीजों पर ध्यान देने से मुश्किल।
पिट के भीतर से बाहर आ गया था प्रद्युम्न। ओवरमेन को आते समय कुछ नहीं कहा। ऊपर को आकर एम॰टी॰के॰ को कहा, "मेरा आज आउट दिखा दो।" एम॰टी॰के॰ ने मुँह ऊपर उठाकर देखा, "नाम क्या है?"
"समारु खड़िया, बदली।"
एम॰टी॰के॰ ने पूछा, "रिटर्न क्यों जा रहे हो?"  भले ही पूछा हो, मगर उसने किसी उत्तर की आशा नहीं की थी।सी फॉर्म रजिस्टर में झुककर समारु खड़िया का नाम खोजने लगा। प्रद्युम्न ने कुछ उत्तर नहीं दिया। लैंप-केबिन काउंटर में बत्ती लौटाकर वह बाहर आ गया।
बाहर आकर पिट हेड में कोयले का स्टॉक, कांटा-घर, कन्वेयर के नीचे दौड़ते वैगन, ये सारी चीजें देखकर उदास हो गया प्रद्युम्न। इस छोटी जगह पर, शहर से दूर, एक वीरान कोयले की  खदान, उससे ज्यादा सुनसान- उसके भीतर सीमाबद्ध होकर रह रहा था प्रद्युम्न मिश्रा। भूलने  होंगे उसे कॉलेज में पढ़ते समय मन में रखे अनेक सपने। उसने बहुत बड़ा आदमी बनने का संकल्प लिया था। मगर अभी भी उसके जीवन के बाकी तीस या चालीस साल इस सुनसान वीराने जगह पर निर्वासन कर लेगा और यहाँ अपने इतने दिनों के परिचय को भी भूलना होगा। पुरी   जिले के शासनीआ परिवार के सर्वेश्वर मिश्रा का पुत्र प्रद्युम्न मिश्रा के रूप में वह जीता आया था, पुरी के एम.सी.एस. कॉलेज में पढ़ रहा था- ये सब झूठे हो जाएंगे उसके लिए और वह समारु  खड़िया, पिता बइठू खड़िया शेड्यूल-ट्राइब होकर रहेगा। उसका और कुछ भी नहीं रहेगा एचीवमेंट या जीने की सार्थकता। सुबह से उठकर और पांच मजदूरों की तरह वह 'पिट'(खदान का मुहाना) पर आएगा और लौट जाएगा शाम को थका हारा। कैलेंडर में छुट्टी के दिनों को छोड़कर अन्य बाकी दिनों को वह अलग नहीं कर पाएगा कभी भी?
असहायता से टूट गया था प्रद्युम्न। उसके विगत बीस इक्कीस वर्षों का परिचय के प्रति महत्त्व-बोध अतीत में झांक कर असहायता से टूट गया था वह। उसके मन में आ गई भयंकर निसंगता। एकाकी। उसकी असहायता को समझकर गले लगाने वाला कोई नहीं था। कोई नहीं था उसकी पीठ पर संवेदना का हाथ रखने वाला।













 

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