दशम परिच्छेद
दशम परिच्छेद
हरिशंकर को थाने के भीतर लेकर गया कांस्टेबल। एसिस्टेंट
सब-इंस्पेक्टर (ए॰एस॰आई॰) के ऑफिस के भीतर उसके टेबल के सामने एक चेयर लगा दी
गई। आई॰आई॰सी॰की चेयर पर कोई नहीं था। एक सफेद टर्किश टॉवल
रखा हुआ था वहां। टेबल के ऊपर कुछ पड़े हुए थे भूरे रंग के कागज-पत्र, एक रुम-घडी, एक पेपर-वेट, एक
फोन, और दीवार पर एक तालिका टंगी हुई। उसके अलावा, जो कुछ होना चाहिए, राष्ट्रीय
नेताओं के फोटो, सरकारी कैलेंडर के पास हाजत।
खुला ताला। भीतर में कोई नहीं था। एक चूहा दौड़ रहा
था फर्श पर। कांस्टेबल ने कहा, “बैठिए।
बाबू सोए हुए हैं। उठने पर आपको खबर देंगे।”
यह कांस्टेबल यहाँ नया आया हुआ है। पुलिस डिपार्टमेंट में हमेशा बदली होती
रहती है। कुछ वर्ष पहले यदि कांस्टेबल यहां नौकरी करता होता, जब ध्रुव खटुआ की पैदाइश नहीं हुई थी, जिस समय हेमबाबू का
एकमात्र प्रतिनिधि था हरिशंकर, तब उस समय उसे
यह कहने का साहस नहीं होता कि थाना बाबू सो रहे हैं, इसलिए उनके उठने तक आप
प्रतीक्षा करो ।
तो क्या श्रद्धा-भक्ति जैसी कोई चीज नहीं ? केवल भय। जब तक
आपके पास क्षमता है, सभी आपको जुहार-विनती करेंगे। जब तुम्हारी क्षमता खत्म हो
जाएगी, कोई भी तुम्हारी इज्जत नहीं करेगा। हेमबाबू की इतनी इज्जत, पुलिस इनसे भी कितनी डरती है, हरिशंकर से ज्यादा
कौन जानता है यह ? पारबाहार कोलियरी
के लॉक-आऊट समय अथवा इमरजेंसी के समय में पुलिस के
डर से हेमबाबू किस तरह भूमिगत हो गए थे उस समय एक साधारण दरोगा भी हरिशंकर को
डरा-धमका देता था। तुम्हारा वह धुप्पल-बाज नेता कहाँ है
उसके नाम का वारंट निकला है।
मगर हेमबाबू सत्ता में आने के बाद, बहुत सारे थाना
बाबू किस तरह से उनकी चमचागिरी कर रहे थे, केवल अपनी बदली रुकवाने के लिए। उनके सामने सिर झुकाकर खड़ा रहते थे, पास गांव में रहने वाली उनकी पहली पत्नी के पास सामानों की पोटली भेजते थे- सब
हरिशंकर ने देखा था। आज उनके आने की खबर पाकर सीधे थाने न आने वाले पुलिस अफसर की
धृष्टता को हरिशंकर ने मन ही मन क्षमा कर दिया था। वह तैयार था इन सारी परिस्थितियों
को झेलने के लिए। और उसे विचलित नहीं करते थे ये सब। वह ट्रेड-यूनियन राजनीति का
पुराना आदमी।
हरिशंकर जब नया-नया ट्रेड यूनियन की राजनीति में घुसा था, वह इतना प्रेक्टिकल नहीं था। लोगों के व्यंग-विद्रूपता को सहन करने की शक्ति
नहीं थी उसमें। सामान्य निंदा से भी वह उखड़ जाता था, झूठी तारीफ से वह
विचलित हो उठा था। हर समय लोग क्या सोचेंगे उसके बारे में, वह सोचता रहता था।
मगर हेमबाबू ने ही उसे पॉलिटिक्स सिखाई थी। सिखाया था, हमारे गणतंत्र में
जनता का कोई स्थान नहीं है। उसे सिखाया था, जनता एक आत्म-सर्वस्व
वस्तु विशेष है। उनका कोई आदर्श नहीं होता है, प्रज्ञा-शक्ति
नहीं होती है, विचार-बोध नहीं होता है उनका।
अपने तात्कालिक स्वार्थ को छोड़कर वह कुछ नहीं समझती है। जनता की कोई स्मृति
नहीं, कोई अतीत नहीं, कोई मिथक नहीं, कोई इतिहास नहीं। जनता
केवल पानी का स्रोत है। ढालू जगह देखकर लुढ़काने से लुढ़कती जाएगी-जैसा तुम चाहोगे।
अन्यथा हेमबाबू क्या हर बार निर्वाचन में जीतते आते। उन्होंने अपने निर्वाचन
क्षेत्र के लिए कुछ भी नहीं किया। अब तक उन्हें फुर्सत नहीं मिली, अपने निर्वाचन क्षेत्र में आने की। उन्होंने अपने गांव में मेटल रोड़ भी नहीं बनवाया। पारबाहार कोलियरी कायह ट्रेड-यूनियन, जहां उनकी राजनीति का शैशव, कैशोर्य, यौवन की नींव पड़ी हो, उसे भी अच्छी तरह
नहीं देखते हैं। कोई आदमी अगर भुवनेश्वर मिलने जाता है उन्हें, तो वहां उनसे मुलाकात नहीं हो पाती थी। मगर उनके नाम से ही चलता है यूनियन।
ध्रुव खटुआ की अखंड प्रतिपत्ति के पीछे लगी हुई थी हेमबाबू के मंत्रीत्व की मोहर।
यह पारबाहार कोलियरी ही थी, हेमबाबू के
वोट-बैंक का अभेद्य दुर्ग।
हरिशंकर चेयर में आराम-पूर्वक बैठ गया। छत की ओर देखने लगा, खाली हाजत को देखने लगा। टेबल के ऊपर रखी भूरी फाइलों की तरफ देखा उसने।
पारबाहार कोलियरी की इस छोटी पुलिस चौकी के नाम से चलने वाले थाने का आई॰आई॰सी॰ सोया हुआ है।
कांस्टेबल ने उन्हें थाने में बैठा दिया, और कहीं चला गया।
पास के कमरे से वायरलेस के घीं-घीं शब्द सुनाई दे रहे थे। बीच-बीच में सुनाई पड
रहा था, हैलो, हैलो, फाइव-थ्री-सेवन-ऐट-नाइन-जीरो-वन। हैलो, ब्लैक पैगोड़ा
कालिंग। ओवर। हैलो, हैलो नोट डाऊन। थ्री-सेवेन-एक्स-एम-नाइन-पी-क्यू, जी,पी,जी फॉर पटना, पीक्यु, जेड़ सी, वी थ्री। वायरलेस रुम में कोई नहीं था। पूरा थाना खाली था। थाना बाबू सोया हुआ
था। थाने का परदा हिल रहा था। परदे की फांक से नजर आ रहा था घास-विहीन सीमाबद्ध
मैदान। वहाँ बैठी हुई थी गौरैया चिड़िया। अकेली, उदास, विपन्न।
थाना बाबू चौकी में पहुंचे बहुत विलंब से। चेयर में बैठे-बैठे हरिशंकर सो गया
था। हरिशंकर का यह एक अद्भुत गुण था। मानसिक तनाव में उसे नींद आ जाती थी। थाना
बाबू के चेयर में बैठते ही बैंच आवाज करने लगा। उस आवाज से
हरिशंकर की नींद भंग हो गई, सजग होकर उसने
नमस्कार किया।
थाना बाबू ने उसे नमस्कार का कोई उत्तर नहीं दिया। केवल मुस्कराने लगे,एक व्यंग मिश्रित
मुस्कान। कहने लगे; “क्या खबर ? आराम से सो रहे हो, और ?”
हरिशंकर समझ गया, कल शाम की मारपीट की खबर के बारे में थाना बाबू को जानकारी
थी। कहने लगा, “आप से मगर मुझे जस्टिस की उम्मीद थी।”
“जस्टिस ? मारपीट करेंगे आप
लोग और जस्टिस मांगेंगे हमसे।”
“मारपीट ? हमने तो मारपीट
चालू नहीं की। थाना बाबू अर्थात् एसिस्टेंट सब-इंस्पेक्टर कुछ लिख रहे थे रजिस्टर में। लिखना बंद कर हरिशंकर के चेहरे
की ओर सीधा देखने लगे, “आपके घर में अगर कोई जोर-जबरदस्ती घुस आएगा तो आप क्या
प्रतिवाद नहीं करेंगे ? मारपीट नहीं करेंगे ?”
हरिशंकर सीधा होकर बैठ गया, “देखिए थाना बाबू, ट्रेड यूनियन किसी की भी व्यक्तिगत संपत्ति नहीं है। यह एक मौलिक अधिकार है।
आप भूल कर रहे हैं, हर श्रमिक का अधिकार है यह। वह किसी भी यूनियन का सदस्य हो
सकता है। हमने नया यूनियन बनाया है। उसका रजिस्ट्रेशन भी है। वह कानूनन मान्यता
प्राप्त है। हमारे अखिल भारतीय स्तर की सेन्ट्रल कमेटी भी है। भारत की विभिन्न
कोयला खदानों में इस यूनियन की शाखाएं भी हैं। एक राष्ट्रीय स्तर के यूनियन का
क्या इतना भी अधिकार नहीं है, पारबाहार कोलियरी
के श्रमिकों को अपना सदस्य बनाना, अगर श्रमिक लोग
राजी हैं तो।”
एसिस्टेंट
सब-इंस्पेक्टर ने कहा, “मान लीजिए आप पहले के यूनियन के सेक्रेटरी रहे होते। ध्रुव बाबू आकर और एक
यूनियन बनाने की कोशिश करते, तब आपकी तरफ से
प्रतिरोध का प्रयास होता या नहीं ?”
“प्रतिरोध का प्रयास स्वाभाविक होता। मगर प्रतिरोध हिंसात्मक उपायों से करना
उचित नहीं होता ? गणतांत्रिक तरीकों
से प्रतिरोध करना चाहिए। लोगों की आस्था से बड़ी शक्ति क्या है यूनियन में ? मगर हिंसा का
प्रयोग कर अपनी शक्ति का परिचय देना उचित है, क्या ?”
थाना बाबू हँसने लगे, “आप बहुत ही
पारंपरिक तरीके से बात कर रहे हैं। थोड़ा प्रेक्टिकल बनिए। देखिए, आपने इतने सालों तक राजनीति की है। आप भी जानते हैं, मैं भी जानता हूं।
अहिंसावाद-गणतांत्रिक आदर्श ये सारे केवल एक शब्द हैं। ये सब सुनने में अच्छे लगते
हैं, कहने में अच्छे लगते हैं। मगर वास्तव में इन सारी बातों का कुछ मायने नहीं
रहता।
कौन-सा गणतांत्रिक पथ, कौन-सा अहिंसात्मक
उपाय, इन सभी की कोई परिभाषा या मापदंड है? आपके पास जो
गणतांत्रिक उपाय है, मेरे पास वे अ-गणतांत्रिक है। इसके अलावा, अहिंसा के बारे में महात्मा गांधी ने भी कहा है-मुझे श्मशान घाट की शांति
नहीं चाहिए। किसी एक गाल पर थप्पड मार देने दूसरा गाल आगे करना क्या अहिंसा है ? उसी क्षेत्र में
प्रतिरोध करना क्या हिंसात्मक उपाय है ?”
हरिशंकर को समझ में आ गया, थाना बाबू ध्रुव
खटुआ के ऊपर कुछ एक्शन नहीं लेंगे। उन्होंने कुछ तेज आवाज में कहा, “इसका मतलब आप हिंसा के लिए उकसा रहे हैं ? आप एक थाना
प्रभारी हैं। आप ऐसी बात कह रहे हैं, जैसे आप ध्रुव
खटुआ के यूनियन के मैंबर हैं। याद रखिए, आपके पक्षपात का
रवैया आपकी कुर्सी के उपयुक्त नहीं है।”
एसिस्टेंट
सब-इंस्पेक्टर थोड़ा दब गया। हरिशंकर समझ गया, पुलिस की वर्दी
में दांभिक चेहरे वाला यह आदमी वास्तव में भीरू है। कुछ वाक्-चातुर्य, कुछ तर्क-वितर्क के ढाल-तलवार की आड़ में यह आदमी वास्तव में असुरक्षित है।
अपनी नौकरी व कुर्सी के लिए वह सब-कुछ करने के लिए तैयार है। सच में, ये होते हैं लोकतांत्रिक देश के टिपिकल क्रीतदास।
थाना-बाबू कहने लगे, “अगर हम पक्षपात
करते, तो आप लोगों की एफ़॰आई॰आर॰ को
दर्ज नहीं करते। क्यों केस रजिस्टर्ड करते ?”
“कौन-सा केस दर्ज किया है आपने ?
160 धारा
तो ? आपने दोनों पक्षों को शामिल किया है यहां। अभी तक
किसी को अरेस्ट नहीं किया है आपने। क्या इसी को केस दर्ज करना कहा जाता है? उन्होंने आकर हमें पीटा और आपने हमारे नाम पर केस किया।”
थाना बाबू फिर अपने फॉर्म में आ गया। कुटिल हंसी हंसते हुए
कहने लगा, “मारपीट किसने की है ? ध्रुव
बाबू के दल ने एफ़॰आई॰आर॰ दाखिल
की है कि आप लोगों ने उनके आदमियों को पीटा है।
“ मगर आप
जानते हैं, यह बात सच नहीं है। हमारे एक आदमी के हाथ-पांव टूटा
है। दूसरे आदमी के चेहरे पर सात-आठ स्टिच आए हैं। आपने उनकी झूठी एफ़॰आई॰आर॰ के आधार पर हमारे विरुद्ध उलटा केस दर्ज किया है ?”
थाना बाबू चेयर पर आराम से पीछे की ओर खिसके। पॉकेट से पान का डिब्बे निकालकर
पान खाया। पान के डिब्बे को बंदकर टेबल के ऊपर रखते हुए कहने लगे, “क्या सही है, और क्या गलत है ? सच-झूठ की क्या आथेन्टिसिटी है? आपने जिस तरह आंखों-देखी साक्षी
जुगाड़ किए हैं, ठीक उसी तरह उन्होंने भी सर्टीफिकेट का बंदोबस्त किया हैं। उसके बाद भी
आप कहोगे उनका दावा झूठा और आपका दावा सही है?”
तब सच नाम की चीज कुछ नहीं है ? जो कर पाएगा, येन-केन-प्रकारेण झूठ को सत्य साबित कर देगा ? ऐसा होने पर कहां
तक जाएगा हमारा देश, हमारा समाज और हमारी नैतिकता ?
नैतिकता, सच में नैतिकता कुछ है ? आपने इतने दिनों तक राजनीति की है। अपने आपको गांधीवादी कहते हैं। गांधीवाद का
कोई भी निशान है आपकी राजनीति में ? नैतिकता कहां है ? जीवन-यापन में, शासन-तंत्र में, न्याय-पद्धति में
या प्रशासन में ? नैतिकता तो एक
प्रागैतिहासिक शब्द। जो केवल शब्दकोश में रहता है। आप ही कहिए, मैं सच बोल रहा हूं या नहीं ?
हरिशंकर हमेशा से ही तर्क-वितर्क में कमजोर था। उसके मुंह से आवाज नहीं निकलती
थी। भाषण नहीं दे पाता था, तर्क-वितर्क में
किसी को हरा नहीं पाता था। मगर तर्कों के ऊपर भी एक सत्य है। उस सत्य को अनुभव
किया सकता था। हरिशंकर जानता था। उसने आगे और बात नहीं बढ़ाई। जानता था, बात बढ़ाने से और कोई फायदा नहीं। पुलिस अफसर युक्ति में बिलकुल भी पीछे नहीं
हटते हैं। वह उठकर आ गया। फाँडी से बाहर आकर खड़ा हो गया है रास्ते के किनारे।
पारबाहार कोयला खदान के रास्तें, पान की दुकान, सैलून, होटल, सब्जी मार्केट सब थम थम कर रहे थे। हरिशंकर का साथ छोड़े हुए लोग देख रहे हैं
उसे उत्सुकता भरी निगाहों से। अनुभवी हरिशंकर को एक गंध मिली-उत्तेजना और टेंशन की
गंध। यह जगह ठीक नहीं है। ज्यादा समय तक यहां रुकने से कुछ भी घट सकता है।
हरिशंकर ने तेजी से अपने कदम बढ़ाकर चलना प्रारंभ किया। क्या वह डर गया है ? इस पारबाहार
कोलियरी में कभी उसका राज चलता था। मगर आज ? आज यह कैसा भय ? जिन लोगों के लिए
उसने लड़ाई की थी, कंपनी के जमाने में छंटाई के विरोध में जिन लोगों के लिए
आंदोलन किया था, जिन लोगों के लिए लग कर टेम्परेरी से परमानेंट करवाया था, जिन लोगों के संस्पेंशन आर्डर का प्रत्याहार किया था, डिसमिस होने के
बाद भी एक बार कोशिश कर रि-एपान्इटमेंट करवाया था, स्ट्राइक-पीरियड़
में पैसा कटने पर भी उनके पैसे फिर से देने की व्यवस्था करवाई थी,वे कृतज्ञ लोग भी क्या अब उसकी सहायता करेंगे। उस भीड़ में से एक भी आदमी बाहर
निकला नहीं, नेताजी, हम तो तुम्हारे साथ हैं, तुम्हें और किसी
से डरने की जरूरत नहीं है, भय किससे ?
हरिशंकर जल्दी ही घर लौट आया। दस बजने जा रहा था। जी.एम. ऑफिस पहुंचने में
निश्चय ही आज देर हो जाएगी। सीनियर ग्रेड क्लर्क घोष बाबू निश्चय टिप्पणी करेगा, आप आ गए नेताजी । मैं सोच रहा था कि आप आज भी फांकी मार देंगे। हरिशंकर भरपूर
प्रयास कर रहा था, ऑफिस में रेगुलर होने के लिए। मगर नहीं हो पा रहा था। बहुत
दिनों से अभ्यास पड़ गया था ऑफिस नहीं जाने का। दूसरा, हर दिन ऑफिस समय
में कुछ न कुछ काम पड़ जाता था। कभी यूनियन का तो कभी कोई मजदूर आकर पहुंच जाता था
अपनी समस्याओं को लेकर।
ट्रेड यूनियन में जो भी रहते हैं, अपना काम किए बिना
तनख्वाह उठाते हैं। यह सुविधा कंपनी के जमाने में भी थी। राष्ट्रीयकरण होने के बाद
लागू हो गई एक अलिखित स्टैंडिंग ऑर्डर की तरह। हरिशंकर के हाथों में ऐसा कोई
यूनियन नहीं था दो सालों से। जबकि पहले वाला ही सुयोग अभी भी मिल रहा है उसे।
यद्यपि अनेक बार उसे समझ में आया है, उसका इस तरह
अनुपस्थित रहना ऑफिस के कई लोगों के ईर्ष्या का कारण बन रहा है- खासकर उसके कुलिग लोगों के लिए
।
पर्सनल मैनेजर के ऑफिस के एक बड़े बाबू ने एक बार हरिशंकर को कहा था, “आप लोग अर्थात् श्रमिक नेता लोग
श्रम श्रमिकों के बारे में बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। दैहिक परिश्रम की यथार्थता का
प्रतिपादन करते हैं, मगर आप खुद अपनी ड्य़ूटी नहीं निभाते हैं। आप श्रमिकों को
उत्पादन बढ़ाने के लिए कभी प्रोत्साहित नहीं करते हो। बल्कि अपने स्वार्थ में बाधा
आने पर, श्रमिकों को उकसाते हो कि गाड़ी भरते समय, ज्यादा ऊंचा लोड न
करके टब लेवल तक ही भरें। आप लोग श्रमिकों को कामचोर होने के लिए प्रोत्साहित करते
हो. मार्क्स, एंजिल्स, जैसे कि लेनिन या
माओ जैसे कम्यूनिस्टों ने तो कभी श्रमिकों को कामचोर होने के लिए नहीं कहा है।
यहाँ मगर भारत में, कम्यूनिस्ट हो या अकम्यूनिस्ट, सभी यही मानसिकता
पैदा कर रहे हैं, कि बिना परिश्रम के किस तरह ज्यादा रोजगार किया जा सकता है।”
हरिशंकर ने इस युक्ति की आड़
में इधर-उधर कुछ कहा, यद्यपि वह अच्छी तरह युक्ति नहीं कर पाता था, मगर हरिशंकर अनुभव
कर रहा था कि उस भद्र व्यक्ति की बातों में कुछ दम था। उसकी बात में, भले ही, हरिशंकर की ऑफिस में अनियमितता के प्रति सीधा-सीधा उल्लेख नहीं था, पता नहीं क्यों, उसे अपने मन में लग रहा था, एक कमजोरी है उसकी
कर्म-विमुखता के प्रति उसकी बातों में। उसी दिन से हरिशंकर ने निश्चय किया
था, ऑफिस में नियमित आने के लिए। यद्यपि नहीं आने पर भी चल जाता, हरिशंकर अगर ऑफिस नहीं जाता तो भी कोई कुछ नहीं कहता। कहने पर भी, जी.एम. के साथ उसके संबंध के कारण कुछ भी अनिष्ट नहीं हो पाता। फिर भी पता
नहीं क्यों, उसके मन में लग रहा था, हरिशंकर लोगों को
प्रभावित करने के लिए जिन आदर्शों की बात कर रहा है, उन आदर्शों से
पहले अपने आपको तौलता था।
अगणी होता को कहा था हरिशंकर ने इस बारे में। कहा था, मैनेजमेंट से लड़ने
से पूर्व हमें परफेक्ट होना पड़ेगा। हमें अपने लेबर को कहना पड़ेगा कि वे लोग फांकी
नहीं मारे।जिन लेबर को काम नहीं करने के बहाने सिक, लीव या छुट्टी चाहिए और अगर मैनेजमेंट उन्हें छुट्टी नहीं
देता है तो इसमें हमें सिर खपाने की जरूरत नहीं है।
अगणी होता ने हरिशंकर की बात को हंसी में उड़ा दिया था।
“ऐसा करने पर हम यूनियन चला पाएंगे, नेताजी ? लोग हमें मानेंगे ? हम अगर किसी को
जरूरत के समय छुट्टी नहीं दिलवा पाएंगे तो हमारा महत्त्व क्या रहेगा ? मान लीजिए, एक आदमी बिना छुट्टी लिए सात-आठ दिन नागा कर लेता है। मैनेजर इसकी छुट्टी एलाऊ
नहीं करता है। और उसका दस-पंद्रह दिन नागा हो जाएगा। उसके बाद उसे चार्ज-शीट मिलेगी
और वह डयूटी जाएगा। लाभ क्या होगा ? पन्द्रह-बीस दिन के पैसे नहीं मिलेंगे उसे। वह जैसे भी होगा, चाहेगा ये पैसे नहीं कटे। अगर हम उसकी सहायता नहीं करेंगे तो ध्रुव खटुआ
करेगा। उसकी सिन्सियरिटी रहेगी हमारे ऊपर? वह तो ध्रुव खटुआ
की तरफ चला जाएगा, है न ?
“तुम तो अगणी, तुमने भी तो अनेक बार कहा है, हेमबाबू ने भी कहा
है कि जनता कहकर कुछ भी नहीं है,उनकी विचार शक्ति
नहीं है, स्मृति भी नहीं।”
“ओफ्फ ! नेताजी, आप प्रेक्टिकल क्यों नहीं बन रहे हो ? मैंने जो कहा था, इस कोलियरी के सभी लोग यहीं बात कहेंगे- सभी यूनियन वाले, सभी पॉलिटिशियन्स। फिर भी यही सत्य है, लोगों की
व्यक्तिगत स्वार्थ-सिद्धि अगर नहीं हुई तो वे ही लोग हमारे शत्रु बन जाएंगे।”
“मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है अगणी। ये कैसे तत्त्व हैं, एक दूसरे के विरोधाभासी।”
“आप इतने पुराने नेता हो। लंबे तीस साल से यूनियन चला रहे हो। आपके सामने तो
मैं बच्चा हूँ। मैं आपको क्या सिखाऊंगा ? आपको क्या मालूम नहीं है, जनता क्या है, जनता कैसे और जनता क्या चाहती है ?”
सच में, अब तक हरिशंकर को जनता के चरित्र का खास ज्ञान नहीं था। हर पदक्षेप में उसका
विरोधाभासी विवेक उसे बेचैन कर देता था। एक पल में जो चीज ठीक लगती है, दूसरे ही पल वह चीज मन में गलत लगने लगती है। ऐसा क्यों होता है ? हरिशंकर की क्या
कोई सैद्धांतिक भित्तिभूमि नहीं है ? आत्म-विश्वास नहीं है ? हरिशंकर के इतने दिनों के अनुभव ने क्या उसको किसी स्तर तक नहीं पहुंचाया ?
हरिशंकर अपने घर को पहुंच गया। बहुत अवहेलना-पूर्वक तैयार किया हुआ था एक
खपरैल घर। जी.एम. ऑफिस ट्रांसफर होने के बाद पारबाहार कोलियरी का क्वार्टर छोड़ दिया
था हरिशंकर ने। अगर वह नहीं छोड़ता, तो भी चल जाता। उस
समय हेमबाबू ने कहा था, “कंपनी का क्वार्टर
क्यों छोड़ रहे हो, हरिशंकर। भाड़ा तो नहीं लग रहा
है। अगर तुम चाहोगे, तो मैं तुम्हारा ट्रांसफर भी रुकवा दूंगा।
हरिशंकर ने उस समय ट्रांसफर रुकवाने या कंपनी क्वार्टर न छोड़ने के बारे में
कुछ भी कोशिश नहीं की थी। क्योंकि उस समय हरिशंकर यूनियन को
छोड़कर कुछ भी नहीं सोचता था। जी.एम. ऑफिस ट्रांसफर होने के बाद भी उसे मालूम था, उसे ऑफिस जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। इसलिए पारबाहार कोयला खदान का ऑफिस या
स्टोर या जी.एम. ऑफिस हो, जहां भी उसकी पोÏस्टग हो या न हो, फिर भी यूनियन के काम में रुकावट आ रही थी। और रही इधर की
बात, उसने कभी घर के बारे में सोचा नहीं था। सिर्फ सोने के लिए अगर एक छत मिल गई तो
वह पर्याप्त थी उसके लिए।
घर के सामने माँ बैठी थी दीवार से सटकर। आकाश की ओर देखते हुए माँ क्या रो रही
थी ? उसके आंखों से
आंसू निकलकर गाल के ऊपर सूख गए क्या ? माँ क्यों रो रही थी ? कुछ विशेष दुख है क्या उसे ? क्या पता ? हरिशंकर ने कभी भी
अपने घर वालों की चिंता नहीं की। इसलिए उसकी पत्नी तरंगिनी इस तरह पागल हो गई थी।
जहां-तहाँ घूमती फिरती थी वह। पहले तो हरिशंकर को यह भी मालूम नहीं था, कि कुना, रुना क्या कर रहे थे, पढ़ रहे थे या नहीं, अगर पढ़ रहे थे तो कौन-सी क्लास में हैं, कुछ भी खबर नहीं
रहती थी उसे। यूनियन के धंधे से आजाद होने के बाद उसे पता चला, रुना दो साल से कॉलेज में फेल हो रहा था। कुना ने तो पढ़ाई छोड़ दी थी बहुत पहले
से। हेमबाबू के यूनियन से दायित्व मुक्त करने के बाद वह अपने घर-संसार की ओर मन
लगा रहा था। ऑफिस से लौटकर घर में रहता था वह। रुना, कुना की पढ़ाई
देखता था। तरंगिनी के साथ हंसी-मजाक कर रहा था। तरंगिनी भी इधर-उधर नहीं घूमती थी, उसका पागलपन भी खत्म हो गया था। रात को वह अच्छे से सो पा रही थी। घर के सामने
उसने साग की क्यारी बनाई थी। हर दिन घर पोंछती थी, हर दिन घर के कपड़े
साफ करती थी। बच्चों के लिए एक प्रेशर कुकर खरीदने के लिए हठ कर रही थी, मांस पकाने की सुविधा हेतु। फिर से यूनियन धंधे में फंस जाने से तरंगिनी का
फिर से पागलपन शुरू हो गया था। नींद की पुरानी दवाइयां भी काम नहीं दे रही थी। अब
आधी रात को घर लौटने लगा था हरिशंकर। माँ नींद से उठकर रेंगते हुए आकर भात बढ़ा
देती थी उसके खाने के लिए। हरिशंकर के खाने के समय घर संसार की दुख सुख की बातें, उसकी पत्नी के पागलपन, रुना, कुना के उच्छृंखलता की बातें कहती थी वह। हरिशंकर कुछ सुनता, कुछ अनसुना कर देता था, मगर, हूँ हाँ करके सब सुनने का अभिनय करता था। इधर उसके दिमाग में यूनियन, मैनेजमेंट, ध्रुव खटुआ, मि. मिश्रा, देशमुख, जी.एम. ऑफिस सब आकर भीड़ जमा लेते थे। मां की बातें एक कान से सुनकर
दूसरे कान से निकाल देता था।
माँ बैठी हुई थी दीवार का सहारा लेकर, शून्य की ओर देखती
हुई। हरिशंकर को देखते ही चौंक कर रोने लगी। औरतों का यह गुण हरिशंकर को बिलकुल भी
पसंद नहीं था। तरंगिनी भी ऐसा करती थी। हरिशंकर के घर में कदम रखते ही वह
रोना-धोना शुरु कर देती थी। एक बार भी वे नहीं सोचते थे कि घर में आए हुए आदमी का
कुछ मेंटल टेंशन है अथवा नहीं। विरक्त होकर वह पूछने लगता था- माँ, क्यों रो रही हो ? क्या हुआ ?
उदगत कोह को दबाकर रखने को
कोई भी लक्षण नहीं दिखाई दे रहा था माँ में। ऐसे ही रोते-रोते कहने लगी, “मेरा भाग्य खराब है, इसलिए मुझे यह
अवस्था देखनी पड़ रही है। हे ! इतने कष्टों के साथ तुम्हें जन्म दिया था, पेट काट कर आदमी बनाया था आज यह दिन देखने के लिए ?
गुस्सा हो गया हरिशंकर- “क्या हुआ, कहो ? इतना रोना-धोना
क्यों कर रही हो ?”
“छैनागुड है, जो
कहूंगी। कुछ नहीं हुआ। केवल मेरा कपाल फटा है।”
क्रोधित हो उठा हरिशंकर- “क्या
कहना चाहती हो, कहो। मेरा दिमाग क्यों खराब कर रही हो ? वैसे
भी मेरा दिमाग ठीक नहीं है। ज्यादा बकवास मत करो, मैं
कह रहा हूँ।”
माँ थोड़ा दब गई। रोना बंद कर कहने लगी- “सुबह
से चाय नहीं पी हूँ। घर में एक मुट्ठी चावल नहीं है। बहू तो वैसे ही पागल है। सुबह
से रुना, कुना भी नहीं दिखाई दे रहे हैं।”
“कहां गए वे लोग ? और
किसी के हाथ से मंगा लेती ?”
“पैसे रखकर गए हो, जो
मंगा लेती ? तुम्हारे पिताजी संन्यासी होने के बाद भी इतने अभाव
नहीं देखे थे मैंने। अरे ! एक बूढ़ी माँ को एक मुट्ठी चावल के लिए इतना तरसना पड़
रहा है।”
माँ अपने कोह को और नहीं दबा सकी। छाती पीट-पीटकर रोने लगी वह। माया ममता
देखकर हरिशंकर की आँखें भर आई। बहुत कष्ट झेलकर माँ ने उसे बड़ा किया था। पिताजी घर
छोड़कर संन्यासी बन गए थे, जब हरिशंकर छोटा
था। पिताजी के साथ और कोई अटैचमेंट नहीं था हरिशंकर का। केवल याद पड़ता है, दाढ़ी, जटाओं से भरा हुआ चेहरा। शाम को अंधेरा फैलते समय ओली के नीचे खड़े होते थे
उसके पिताजी। मां दीवार के सहारे खड़ी होती थी, साड़ी के पल्लू से
आंसू पोंछते हुए। हरिशंकर को माँ कहने लगती, “जाओ, पिताजी आए हैं, पांव छूओ।”
पांव छूने की तनिक इच्छा नहीं थी हरिशंकर की। फिर भी वह आगे बढ़कर पांव छूता
था। माँ ने पहचान करवाई - “यह हरि है।”
“इतना बड़ा हो गया ?” मुग्ध-भाव से पिताजी हंसने लगे, “मैं सोच रहा था
अभी छोटा होगा। रवि कहाँ है ?”
पिताजी चले जाते थे कुछ समय रुकने के बाद। उनके जाने के बाद माँ चारपाई के ऊपर
इधर-उधर होते, तकिए में मुंह छुपाकर रोती थी हर बार। माँ का वह क्रंदन हरिशंकर के सीने में
अभी भी प्रतिध्वनित होता है। कभी भी पिताजी के प्रति श्रद्धा नहीं थी उसकी। फिर भी
उसकी धमनियों में कहीं न कहीं जैसे पिताजी का खून संचरित हो रहा हो। माँ कहती थी, हरिशंकर ठीक ऐसा ही दिखता है, जैसे उसके पिताजी।
ठीक वैसे ही गुण पिताजी की तरह निरासक्त, निस्पृह, मोह रहित। किसी भी प्रकार का अटैचमेंट नहीं था घर के साथ। जबकि हरिशंकर इन
सारे गुणों के कारण ही पिताजी को कभी भी प्यार नहीं कर पाता था।
एक दिन शाम के समय पिताजी आए थे। हरिशंकर को बुलाकर ले गए थे। गाँव के रास्ते
से गुजरते हुए वह अनुभव कर
पा रहा था पिताजी के हाथ का स्पर्श अपनी पीठ के ऊपर। पिताजी कह रहे थे, “देखो बाबू, तुम अब बड़े हो गए हो। घर-संसार की जिम्मेवारी अब तुम्हारे ऊपर। मैं हिमालय जा
रहा हूँ। मुझे भगवान बुला रहे हैं और माया-मोह में फंसने की कोई इच्छा नहीं।
तथापि माया की डोर नहीं टूट पा रही है। संन्यासी होने के बाद भी मेरा मन लगा रहता
था यहाँ। और अब नहीं। समय भी तो नहीं बचा है। मैं जानता हूँ, तुम मुझे पसंद नहीं करते हो, फिर भी मुझे समझने
की कोशिश करना, और हो सके तो मुझे माफ कर देना। तुम्हारे भरोसे ही मैं यह संसार छोड़ रहा हूँ
माँ का ध्यान रखना। रवि को पढ़ाते रहना। तुम्हारी माँ तो बड़ी अभागिन है। उसको मैं
आजीवन सुखी नहीं रख पाया। तुम उसे सुखी रखने की कोशिश करना।”
अंतिम वाक्य कहते समय पिताजी की आवाज गंभीर हो गई थी और उनकी आँखें भर आई थी।
पिताजी आगे चले गए गांव की गलियों के अंदर। हरिशंकर खड़ा था अंधेरे में। नहीं, अब और पिताजी की छाया भी दिखाई नहीं दे रही थी। उसकी आंखों में आंसू नहीं थे। मन
में दुःख था या गुस्सा ? क्या सोच रहा था
वह, कौन जाने। घर आने के बाद उसने देखा माँ पहले की तरह नहीं रो रही थी। अपने आपको
संभाल लिया था उसने। घर के अंदर आकर चारपाई पर बैठ गई थी माँ। लालटेन की रोशनी में
हरिशंकर ने देखा था, माँ की आंखों में एक दृढ़ प्रत्यय का चिह्न। बहुत बार
आत्मविश्वास लौट आया था हाईस्कूल के फर्स्ट क्लास छात्र हरिशंकर में। उसके
सिर पर जिम्मेदारियों का बोझ था. वह अचानक वयस्क
हो गया। मां कहने लगी, “घर
कैसे चलेगा इसके बाद, कहो
तो ?”
“मैं नौकरी करूंगा।” हरिशंकर
खुद अपनी आवाज से आश्चर्य चकित हो गया। इतनी आत्म-प्रत्यय, वज्र-निर्घोष
आवाज उसने कहाँ से पाई ? किसने दी उसे इतनी शक्ति ? किसने
भर दिया उसके मन में इतना अभिमान ? कहने
लगा- “पारबाहार कोयला खदान में हमारे गांव के लोग हैं न ? उधर
जाऊँगा नौकरी खोजने।”
उसके दूसरे दिन ही माँ ने अपने गहने गिरवी रखकर, लाकर उसे दिए थे बीस रुपए। उसके बाद फिर एक नए अभ्यास
की शुरूआत। यह लगभग आज से तीस-पैंतीस साल पहले की बात होगी। वह दायित्व-बोध
कहां चला गया हरिशंकर का ? पारबाहार
कोलियरी में नौकरी पाने के बाद वह धीरे-धीरे यूनियन की ओर आकर्षित हुआ और भूल गया
अपनी दुनिया, अपना दायित्व-बोध, अपने
कमिटमेंट सब-कुछ। शायद पिताजी का खून अभी भी हरिशंकर की नाड़ियों में दौड़ रहा है, जिसके लिए वह पिताजी नापसंद करता था। वह खुद भी अपने
पिताजी की तरह निरासक्त, निःस्पृह हो
गया इस दुनियादारी
के प्रति।
घर में एक पैसा भी नहीं। किसके आगे हाथ फैलाएंगी ? आँखों से दिख नहीं
रहा है। भीख मांगकर खाना पड़ रहा है। इसलिए आधे दिन उपवास करना पड़ता था।
हरिशंकर घर के भीतर आ गया। लड़की की अलमारी से पासबुक निकाली। पैंतीस रुपए
पिछले महीने के बचे हुए थे। इस महीने की तनख्वाह छब्बीस सौ के आस-पास बैंक में जमा
हो जाएगी। इस महीने की तनख्वाह ही नहीं उठी है उसकी। उठाने का मन भी नहीं। पासबुक
को पाकेट में रख दिया। पाकेट में केवल एक रुपया पड़ा हुआ था हरिशंकर के। क्या चावल
उधार खरीदकर लाएगा दुकान से ? कौन-सी दुकान से उधार मिलता है या नहीं, उसे मालूम नहीं था ? अब वह किस दुकान
से जाकर चावल उधार लाएगा ? कभी भी तो दुकान से खरीददारी नहीं की है हरिशंकर ने ?
बाहर आकर माँ को कहने लगा, “रुको, मैं बड़ा-सिंघाडा लाने के लिए भेज देता हूँ। आज ऐसे ही चला लो। बैंक से पैसे
निकालकर शाम को चावल खरीदूंगा।”
कहने के बाद माँ के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना वह चला आया। जैसे कि माँ के
आमने-सामने होने की हिम्मत नहीं थी उसमें। माँ अगर कहीं पूछ लेगी कि तुम्हारे
पिताजी ने जिस दिन हमसे अंतिम विदाई ली, उस दिन संध्या के
समय जो तुमने निर्भय प्रतिश्रुति की थी, वह आश्वासन कहाँ
गया ? क्या उत्तर देगा
हरिशंकर ?
रास्ते पर आने के बाद फिर वही पुरानी चिन्ताएँ सताने लगी हरिशंकर को। इतने
सालों तक यूनियन के धंधे से क्या मिला हरिशंकर को ? रुपए-पैसे, घर द्वार, मंत्रीत्व। क्या मिला ? जैसे कि वह कुछ चाह रहा हो ? शायद वह कुछ भी नहीं चाह रहा था। एक उत्तेजना में, कुछ करने की एक
उत्तेजना में, एक नई सृष्टि की प्रक्रिया में, हर पल घटने वाली
घटनावलियों में वह अपनी आशा-आकांक्षाओं को, प्राप्ति-अप्राप्ति
को बांध दिया था। ये सब क्या व्यक्तिगत स्वार्थ कहा जाएगा ? फिर जिसे सब लोग
आदर्शवाद कहते हैं, ऐसा कुछ नहीं जिसे नैतिकता कहते है, ऐसा भी कुछ नहीं ? क्या वास्तव में
ये सब नहीं है ? तब हरिशंकर ने ऐसा
क्या किया है, जिसके सहारे आज तक बचे हुए हैं। उसका घर-संसार, सुख-शांति, अपने उत्तरदायित्वों को तिलांजलि देकर यूनियन के पीछे क्यों लगा था ?
हरिशंकर के ‘भाईना होटल’ के सामने पहुंचते समय भीड़ कम हो गई थी और ‘भाईना’ काउंटर में बैठकर पेपर मोड़ रहा था। हरिशंकर ने छः सिंघाड़ा और छः बड़ा एक पैकेट
में देने को कहकर, दो आलुचाप और एक हॉफ चाय
अपने लिए मंगवाई। माँ आलूचॉप नहीं खाती थी। खाने में पसंद नापसंद बहुत था उसका। छः
सिंघाडा छः बड़ा। निश्चय, माँ नहीं खा
पाएगी। मगर ज्यादा ले जाना ठीक रहेगा। तरंगिनी, रुना कुना भी भूखे
पहुंच सकते हैं। इस भाईना होटल में ही हरिशंकर का उधार-खाता चलता है।
भाइना पेपर पढ़ना बंद कर, उठकर आ गया
हरिशंकर के पास और सामने की चेयर पर बैठ गया। होटल के नौकर ने आकर प्लेट में
आलूचाप और चटनी देकर चला गया। भाइना ने थोड़ा सामने झुककर फुसफुसाती आवाज में कहा, “नेताजी एक बात कहनी थी।”
चम्मच से आलूचाप के टुकड़े करने की व्यर्थ चेष्टा करते हुए हरिशंकर ने कहा, “कहो, क्या कह रहे थे ?
“नेताजी, इस महीने खाते में छः सौ रुपए हो गए हैं। पिछले महीने के तीन सौ बाकी है।”
चम्मच रखकर आलूचाप उठाते हुए आश्चर्य के साथ हरिशंकर ने कहा- “इस महीने के छः सौ
रुपए?”
और पिछले महीने के बाकी है। आपके घर में रसोई नहीं बनती है, नेताजी ? मुझे गलत मत समझना, ये सारे लक्षण ठीक नहीं है। लक्ष्मी छोड़कर चली जाएगी। आपको कहूंगा, कहूंगा कहकर कह नहीं पा रहा था।”
“इतने पैसों का नाश्ता ? कौन लेता है ?”
“क्या कौन ? आपका लड़का आपकी
पत्नी, आपकी बूढ़ी मां, जो पाता है सो मंगाता है। दिन का पंद्रह बीस रुपए का बिल।
घर में थोड़ा नियंत्रण करो। इतने रुपयों का नाश्ता।”
हरिशंकर गंभीर हो गया। उसकी दुनिया उजड़ गई थी। शायद उसके लिए हरिशंकर ही दायी
है। रुना कुना को पढ़ाने का दायित्व उसका ही था, जबकि वह एक महान
उद्देश्य के लिए अपने जीवन का त्याग कर घर के प्रति इतनी अवहेलना कर रहा था। जबकि
वह महान उद्देश्य क्या था ? कुछ था ? अगर था भी तो उस
असफल महान उद्देश्य के लिए माँ, तरंगिनी, रुना कुना के जीवन को बर्बाद करने का अधिकार उसको किसने दिया ?
हरिशंकर होटल के लड़के के हाथ से बड़ा सिंघाडे का पैकेट बाहर लाते समय भाइना को
कहने लगा, “मैं देखता हूँ। घर में समझाऊंगा। तुम अभी उधार देना बंद मत करना, एक दो दिन के बाद कहूंगा तुम्हें।”
होटल से बाहर आकर हाथ-घड़ी देखी हरिशंकर ने। दिन के ग्यारह बजकर पन्द्रह मिनट।
हे, बहुत समय हो गया। उसे जल्दी ही जी.एम. ऑफिस जाना पड़ेगा। जी.एम. ऑफिस भी यहां
से सात-आठ किलोमीटर दूर। बस
मिलेगी या नहीं, साथ ही साथ, किसे पता। हरिशंकर के अपने घर की ओर मुंह करते समय पीछे से किसी के पुकारने की
आवाज सुनाई पड़ी- नेताजी, नेताजी।
घुमकर देखा हरिशंकर ने। अगणी आ रहा था साइकिल पर। पिट से सीधा आ रहा होगा।
क्योंकि हॉफ-पेंट और शर्ट पहनकर ही आ रहा था। सारे शरीर पर काला रंग इधर-उधर लगा
हुआ था। हेलमेट भी
अपने सिर से निकाला नहीं था।
हरिशंकर के पास पहुंचकर साइकिल से उतर गया अगणी। खुशखबरी है, नेताजी।
“क्या खबर ?”
“प्रोजेक्ट ऑफिसर का ट्रांसफर हो गया है।”
“सच में।”
अभी ही फैक्स-मैसेज आया है। जी.एम॰ ने फैक्स रिपोर्ट भेजी थी हेड क्वार्टर को, परसों के दिन की मारपीट की खबर लिखकर। उसका उत्तर आया है।
इतना जल्दी इस तरह विजय मिल जाएगी, सोचा भी नहीं था हरिशंकर ने। खुशी से बड़ा-सिंघाडे का पैकेट पकड़ा दिया अगणी के
हाथ में।
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