नवम परिच्छेद


नवम परिच्छेद
                प्रद्युम्न कभी भी हवाई जहाज में नहीं बैठा था। फाइव स्टार होटल के अंदर नहीं गया था। पेरिस या न्यूयार्क की तो दूर की बात, नेपाल या बंगलादेश भी नहीं देखा था। यहां तक कि हिमालय भी नहीं देखा था, दार्जिलिंग, काश्मीर कन्याकुमारी, गोवा- ये सब कुछ नहीं देखे थे। भारत के अन्यान्य हिस्सों को देखना तो दूर की बात, प्रद्युम्न ने अभी तक ओड़िशा के मयूरभंज, कोरापुट, केंदुझर, फूलवाणी और कालाहांडी अंचल भी नहीं देखे थे।
                मगर प्रद्युम्न का बचपन अच्छी तरह याद है, जब वह एक ग्लोब लेकर खेलता था। अक्षांश, देशांतर रेखा, जल और स्थल भागों को विभिन्न रंगों से देश, महादेश की सीमा रेखा खिंची हुई थी और अलग-अलग देश, महादेशों के ऊपर लाल रंग से दर्शाया गया था अंतरराष्ट्रीय विमान पथ। कलकत्ता, दिल्ली, मुंबई, कराची, जिप्ट, मॉस्को, पेरिस, लंदन, वांशिंगटन, टोक्यो और विभिन्न जगहों को जाने के रास्ते।
                पिताजी ने एक बार कहा था, तुम मन लगाकर पढ़ाई करो, देश-विदेश का  भ्रमण कर पाओगे। प्रद्युम्न को पता नहीं उसने मन लगाकर पढ़ाई की या नहीं। मैट्रिक में फर्स्ट डिवीजन आया था उसका। इंटरमीडिएट सैकेंडरी सर्टीफिकेट आई.एस.सी. में सेकेंड डिवीजन। पी.सी.बी (फिजिक्स, केमेस्ट्री, बॉटनी) विषय थे।  मगर मेडिकल एन्ट्रेस परीक्षा पास नहीं कर पाया था। उसके बाद बी.कॉम में भर्ती हो गया। बी.कॉम के पाठ कुछ भी समझ में नहीं आ रहे थे।
                मनी बैंकिंग, पब्लिक फाइनेन्स की तरह इकोनोमिक्स जैसे विषय समझने में कष्ट हो रहा था उसे। रिजल्ट आने पर प्रद्युम्न ने देखा वह फेल हो गया था। सप्लीमेंटरी देने के लिए उसका मन नहीं था। पिता जी के जबरदस्ती के कारण दिया था। बिना किसी मूड़ और प्रिपरेशन के परीक्षा देने से फेल हो गया था प्रद्युम्न। उसके बाद एक बार और सप्लीमेंटरी और फिर फेल। उसके बाद और परीक्षा नहीं दी प्रद्युम्न ने। घर में सभी ने सोच लिया था कि वह कभी भी परीक्षा पास नहीं कर पाएगा।
                प्रद्युम्न क्या करेगा जीवन में, ऐसा कुछ भी नहीं सोचा था बचपन में। घर में सभी लोग पढ़ाई कर रहे थे। वे स्कूल में पढ़ रहे थे, स्कूल के बाद कॉलेज में। कुछ दिन तक कविताएं लिखता था प्रद्युम्न, फिर भी किसी पत्रिका में छपने के लिए नहीं भेजा था उसने। बहुत छुपाकर रखा था अपनी कविताओं को उसने, जैसे वे हो उसका पाप और प्रेम। सारी कविताओं में अवश्य ही मीनाक्षी को नहीं पाने का दुख था। मगर कविता लिखने की स्पृहा भी ज्यादा दिन तक टिक नहीं सकी प्रद्युम्न की। कुछ दिन तक नाटक में भाग भी लिया था प्रद्युम्न ने.। कॉलेज में ड्रामा सेक्रेटरी के लिए खड़ा हुआ था वह, मगर हार गया था। राजनीति में ऐसे कभी भी भाग नहीं लिया था प्रद्युम्न ने। फिर भी एक बार इमरजेंसी के बाद कांग्रेस सरकार के विरुद्ध प्रचार करने में जुट गया था वह और जनता दल के बै पहनकर घूमने के कारण आजन्म कांग्रेस के समर्थक रहे पिताजी के साथ कुछ मतभेद भी हो गया था। प्रद्युम्न के अंधेरे भविष्य के बारे में पिताजी के कटाक्ष को छोटी बहिन गुस्से में आज भी कहती है- पिताजी कहते हैं, तुमसे कुछ भी नहीं होगा, तुम्हारा भविष्य अंधकारमय है।
                प्रद्युम्न ने न तो कविताएं लिखी, न राजनीति की थी, न नाटकों में भाग लिया। दोस्तों के साथ मिलकर कम्पीटिटिव परीक्षा तथा उसके रिजल्ट के बारे में बहुत आलोचना करने के बाद कभी भी उन परीक्षाओं में बैठने का सपना तक नहीं देखा था ग्रेजुएशन से पहले और न ही उनके लिए कुछ प्रिपेरेशन भी की थी। क्या करेगा तुम प्रद्युम्न ? इस प्रश्न का सटीक उत्तर भी नहीं था उसके पास। तो क्या उसने ऑफिसर होने का सपना देखा था उसने ? न व्यापारी बनने का ? न ही शिल्पी बनने का ? पारादीप में ट्रेलर चलाने का सपना देखा था क्या ? सिनेमा हॉल या होटल खोलने का सपना था उसका ? उसने क्या सोचा था, प्रेस खरीदकर पत्रिका प्रकाशित करेगा ? क्या सोचा था प्रद्युम्न ने तब ? नहीं, उसने कुछ भी नहीं सोचा था और इस कोलियरी में आकर समारु खड़िया बनने के बाद उसने अनुभव किया-  ऐसा जीवन भी तो उसने नहीं चाहा था। उसकी कल्पना से बाहर था समारु खड़िया का जीवन यापन।
                होटल में बैठकर चाय पीते समय अन्यमनस्क हो गया था प्रद्युम्न। उसके पास बैठकर ओमप्रकाश बकबक कर रहा था, सुबह पिट हेड मीटिंग की बातें कह रहा था, सबसे दूर कहीं वह खो गया था। खो गया था पुरानी यादों के जंगल के भीतर। पुरी का बडदांड, समुद्री किनारा, गांव की यात्रा, पार्टी का रिहर्सल, गिरे हुए गोटा नारियलों से भरा तालाब का किनारा, नारियल के पेड़, दहीचूड़ा का चकटा, पक्की फर्श पर  लक्ष्मीपाद के निशान, मार्गशीष महीने में खेतों में पके धानों की खूशबू। उसके सामने ओमप्रकाश नहीं था। कोलियरी नहीं थी। ट्रेड यूनियन नहीं था। समारु खडिया तो कहीं नहीं था, न स्मृति में और न ही विस्मृति में।
                आज पिट हेड की मीटिंग में क्यों गया था प्रद्युम्न ? उसने राजनीति को कभी सिरीयसली नहीं लिया था। ट्रेड यूनियन वाले जैसे सोचते हैं, शोषण, अत्याचार, संघर्ष और आजादी की कहानियाँ- कभी भी सोचा नहीं था प्रद्युम्न ने। वह मध्यमवर्गीय परिवार से आया है और वही उसके लिए गौरव का विषय है। उसके लिए सबसे बड़े दुख की बात थी, उसके जैसे मध्यम वर्गीय बाबूगिरी के ऊपर श्रमिक श्रेणी की कुलीगिरी ने प्रहार कर दिया। शायद प्रद्युम्न ने अपने आपको समारु खड़िया मान लिया हो। मगर प्रद्युम्न मिश्रा, कॉलेज का पढ़ा-लिखा, त्रिसंध्या गायत्री अर्चना नहीं करने पर भी जो अभी भी शौच के समय कान पर जनेऊ धारण कर अपनी अशौच अवस्था  की रक्षा करता है, जो टेब चेकर की तरह बाबू जैसी नौकरी में चला सकता है अपने को। मगर बदली लोडर बनकर कुली लोगों की तरह गाड़ी भरने का दुःस्वप्न देख नहीं सकता था वह।
                फिर भी प्रद्युम्न गया था यूनियन मीटिंग में। यूनियन में हाथ खड़ा कर वोट दिया था उसने। नए बनने वाले यूनियन की एक्जिक्यूटिव बॉडी मेम्बर के रुप में उसके नाम की घोषणा कर दी गई थी। अगणी काका ने बुद्धिमान आदमी की तरह काम की तरह बाद में प्रद्युम्न को कहा था, बॉडी मेम्बर की तरह रहना उचित है तुम्हारे लिए। प्रेस्टिज बढ़ेगी। ऑफिसर भी सोच विचार कर बात कहेंगे। तुम्हारा काम भी हो जाएगा।
                प्रद्युम्न को मन में लग रहा था, जैसे वह अब एक सच्चा श्रमिक बन गया हो। और अब वह मध्यमवर्गीय परिवार का नहीं रहा। ऐसा मन में क्यों लगने लगा? श्रमिकों को लेकर राजनीति करने वाले सभी तो मध्यमवर्गीय परिवार से आते हैं। श्रमिक परिवार में पैदा होकर श्रमिक के रुप में जीवन-यापन करते हुए अपने अधिकारों को हासिल करने के लिए कौन एकजुट होता है। मध्यम वर्गीय आदमी ही तो अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए श्रमिकों को एकजुट होने को कहते हैं और उससे अपना फायदा उठाते है। श्रमिक नेता लोग क्या कम शोषण करते हैं ?
                ओमप्रकाश को उसने देखा मगर वह कुछ अलग-अलग लग रहा था। बहुत ही मूर्ख है यह लड़का। उत्तर प्रदेश या कहीं और बाहर का लड़का। प्रद्युम्न को पता नहीं वह मध्यमवर्गीय परिवार का है या श्रमिक परिवार का। उसकी चाल-चलन से ग्राम्य-अंचल की खुशबू आती है। जैसे कि खूब पैसे वाला हो। बहुत ही दिलदार आदमी है यह। मानो उसके प्रदेश में गंगा किनारे एकड़-एकड़ जमीन और दस-पन्द्रह दुधारू गाय-भैंसों का ठाट-बाट को छोड़कर यहाँ आकर केवल कृपा-दृष्टि दिखाता है। प्रत्येक वाक्य में वह यह दिखाना चाहता है, इस ओड़िशा में कुछ भी नहीं है- जो कुछ भी है, वह उसके प्रदेश में है।
                प्रद्युम्न हँसने लगा ओमप्रकाश की इस तरह की मूर्खतापूर्ण बातें सुनकर। मगर उसकी सरलता ने उसे प्रभावित किया था। सब कुछ होने के बाद भी ओमप्रकाश जटिल आदमी नहीं था। सीधी बात करता है वह। बिलकुल छोटी-मोटी बातों पर उत्तेजित हो जाता है। थोड़ा मान-सम्मान के साथ बात करना नहीं आता है उसे। धीमी आवाज में तो बात करना सीखा ही नहीं है वह। अंडरवियर पहने ही चारों तरफ घूमकर आ सकता है वह, शर्म नहीं आती है उसको।धोती के नीचे जूते-मोजे पहनकर चला जाता है वह, पता नहीं चलता है उसे की गलती कहां हो गई। हमेशा अपने प्रदेश में ऐसे ही कपड़े पहनता है, जैसे कि स्पेशियल पूजा-पाठ में भाग लेने जा रहा हो। यही ओमप्रकाश की सरलता उसे अच्छी लगती है। ऐसे भी प्रद्युम्न के साथी लोग कौन है इस कोलियरी में ?
                कोलियरी के लोगों को देखने से वे बड़े माया-मोह वाले नजर आते हैं प्रद्युम्न को। केवल कोयले की खदान और अपने घर के सिवाय कुछ नहीं जानते हैं वे लोग। इतनी बडी दुनिया में इस समय अमेरिका के अमुक शहर में अमुक स्पीड से सौ सौ हजारों हजारों लोग भागे जा रहे हैं, उन्हें देखने की, मिलने की या उनके बारे में जानने की बिलकुल भी इच्छा नहीं होती है उनकी। उनकी कभी भी इच्छा नहीं होती है टी.वी. सिरियल में हीरो बनने की, एवरेस्ट के ऊपर तिरंगा झंडा फहराने की,उन्होंने कभी भी नहीं सोचा होगा लगातार सात दिन साइकिल चलाने के लिए या मृत्यु के उपरांत उनकी ढकी हुई ब्रांज की मूर्ति का रास्ते के किसी किनारे या चौक पर अनावरण होने की बात। केवल उन्हें पता है संभोग, संचय और भौतिकवादी सुखों की लालसा।
                और कोलियरी की औरतों का चेहरा देखने पर भी मन मर जाता है प्रद्युम्न का। जैसे कि उनकी जीवनीशक्ति खत्म हो गई हो। जैसे कि कोई एक अदृश्य चुड़ैल रात दिन स्ट्रा लगाकर चूस लेती हो उनके सारे खून को। और बना देती है ऐनेमिक। चीत्कार और हॉस्पिटल, चीख, घर और रसोई, बच्चों का क्रंदन, ज्वर, दस्त और अस्पताल और चीख, रात के बाद दिन और दिन के बाद रात इस तरह बीता जा रहा था उनका जीवन।
                ऐसे लोगों के बीच में प्रद्युम्न पूरी तरह से व्यतिक्रम। उसे ऐसा हाने की क्या जरुरत थी ? इनकी तरह ? जैसे अपनी परिधि सुखी रहने वाले लोगों की तरह ? शायद ये सारी चीजें उसे बुरी तरह नर्वस कर दे रही थी। बेहतर होता, प्रद्युम्न कहीं और चला जाता।  नहीं, नहीं जा पाएगा। उसे अपना सारा जीवन इसी कोयला खदान के निर्वासन में बिताना पड़ेगा। वह भी कुछ दिनों बाद इस संसार में आकृष्ट होकर भूल जाएगा बाहर के सारे जीवन को। भूल जाएगा अपना अस्तित्व ? भूल जाएगा अपने शैशव, कैशोर्य और यौवन के दिनों को ? भूल जाएगा प्रद्युम्न मिश्रा को ? वह केवल समारु खडिया बनकर रहेगा ? सोचते-सोचते उदास हो गया प्रद्युम्न का मन।
                ओमप्रकाश ने चाय के गिलास को आवाज करते हुए रखा और प्रद्युम्न के कान में फुसफुसाने लगा, “चल मिश्रा, यहां से खिसक जाते हैं। यहां की हालत मुझे अच्छी नहीं लग रही है।
                प्रद्युम्न का उठने का मन नहीं था। वास्तव में वह कहीं पर नहीं जाना चाहता था। अगणी काका के छोटे क्वार्टर में जाने की तनिक भी इच्छा नहीं थी उसकी। रुनु झुनु की अस्वस्तिकर उपस्थिति उसके लिए असहनीय थी। अगणी काका के क्वार्टर में वह हर समय अपने आपको अनुभव कर रहा था एक परजीवी पेड़ की तरह नितांत अनावश्यक। इस कोलियरी के कॉलोनी के किसी भी घर में उसके लिए स्वागत द्वार  नहीं खुला हुआ था। कितना और इधर-उधर घूमेगा। इससे तो अच्छा है, चाय की दुकान पर कुछ समय काट लिया जाए। वह पूछने लगा- क्या हो गया ?ऐसी खराब अवस्था क्यों नजर आ रही है ?”
                “देखो न, चारों तरफ हमारी विरोधी पार्टी के लोग बैठे हुए हैं, उनकी आँखों की भाषा तो देखो। कुछ अघटन न हो जाए।
                “क्या अघटन ?”
                “जोर से मत बोलो, तो।
                ओमप्रकाश ने उठकर काउंटर पर पैसे दिए और खींचकर ले गया प्रद्युम्न को बाहर। क्या हुआ, सोचने-समझने के पहले, पीछे से किसी ने आवाज दी- हे बाबू, थोड़ा सुनो तो। सुनो तो।
                प्रद्युम्न घूमकर देखने के समय ओमप्रकाश फिर से खींचकर बाहर लाया और दौड़ना प्रारंभ किया, यह कहते हुए, “दौड़ दौड़। भाग यहां से। वे लोग हमें मारने आए हैं।
                प्रद्युम्न ने पीछे देखा, दो काले मोटे तगड़े आदमी दौड़ते हुए आ रहे थे और प्रद्युम्न ने उन्हें पहचान लिया, मगर उनके नाम याद नहीं आ रहे थे। प्रद्युम्न अचानक सावधान हो गया और समझ गया सब-कुछ, दोनों लोग किसी खराब मकसद से ही दौड़कर आ रहे हैं। दौड़ने से पूर्व एक बार फिर घूमकर देखा, ओमप्रकाश बहुत तेजी से दौड़ता जा रहा था। उसका सीना धड़कने लगा और भय से कातर प्रद्युम्न आंखें बंदकर ओमप्रकाश के पीछे दौड़ते-दौड़ते चिल्लाने लगा, “हेल्प ! हेल्प !
                प्रद्युम्न ने और दो कदम आगे बढ़ाए थे या नहीं, किसी ने उसका कालर पकड़ा और गले के पास शर्ट दबाने से उसका दम घुटने लगा। उसे आधा सुलाने वाले आदमी के चेहरे की तरफ देखा प्रद्युम्न ने। यह आदमी तो हॉलेज ट्रामर में काम करता है, उसे याद आ गया। उस आदमी ने उसे मारते हुए कहा-
                “बहुत यूनियन बना रहा है, है ना? रहो, तुम्हारा यूनियन बनाने का शौक खत्म कर देता हूं।
                फिर एक जोरदार घुसा मारा प्रद्युम्न के चेहरे पर और उसे चारों तरफ अंधेरा दिखाई देने लगा।  उसके मुंह, नाक, कान में असहय यंत्रणा होने लगी और जैसे सारे चेहरे पर किसी ने आग लगा दी हो। वह असहाय था। उसने अनुमान लगा लिया था, जरुर खून बहने लगा होगा।
                और एक आदमी, जो इस आदमी के साथ भाग रहा था, लौट आया और इस आदमी को हिलाते हुए कहा- यह असली नहीं है।ओमप्रकाश को पकड़ना पडेगा।इसे छोड़कर मेरे पीछे आओ।
                प्रद्युम्न को मारने वाला आदमी अप्रस्तुत अवस्था में था, उसे एक तरफ ठेलते हुए विकल प्राणों से दौड़ पड़ा, क्वार्टर लाइन के दूसरी तरफ वाले रास्ते की ओर। ये सारे लेबर क्वार्टर थे और कुछ समय पहले यहां चहल-पहल थी, बच्चे खेल रहे थे यहां, रस्सी वाले खाट पर लेबर लोग बैठकर गपशप कर रहे थे। मगर अभी सभी दरवाजे बंद थे। खेलने वाले बच्चे, गप-शप करते आदमी सभी कहां चले गए, पता नहीं कहाँ।
                प्रद्युम्न ने देखा, कि वह आततायी फिर एक बार उसकी तरफ दौड़कर आ रहा है और दूसरा आदमी ओमप्रकाश जिस तरफ भागा था, उधर भाग रहा है। प्रद्युम्न ने इस बार विकलता से बंद दरवाजा खटखटाया, “दरवाजा खोलो। दरवाजा खोलो। ये लोग मुझे मार देंगे।
                भीतर से किसी ने दरवाजा नहीं खोला। आततायी पास आता जा रहा था। प्रद्युम्न के पास प्रतीक्षा करने का और समय नहीं था। उसने और दूसरे क्वार्टर का दरवाजा खटखटाया मगर उसने भी दरवाजा नहीं खोला। प्रद्युम्न की नजर पड़ गई, दूर के किसी क्वार्टर में थोड़ा-सा दरवाजा खुला हुआ था। प्रद्युम्न जल्दी-जल्दी उस दरवाजे की तरफ गया, मगर वहां पहुंचने से पहले ही उस दरवाजे में चिटकनी लगाकर किसी ने बंद कर दिया।
                प्रद्युम्न ने देखा, पीछे से दौड़कर आने वाले आदमी ने कहीं से एक बड़ी लाठी जुगाड़ की है और बहुत ही शीघ्र गति से आगे दौड़ता आ रहा है। और किसी दरवाजे को खटखटाने का कोई फायदा नहीं है, समझ लिया था प्रद्युम्न ने। उसने अपने जीवन में इस तरह के किसी संत्रास का आमना-सामना नहीं किया था और उस समय उस आततायी की चपेट से खिसकने के अलावा और कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था। प्रद्युम्न ने कभी भी रेस में भाग नहीं लिया था। पुरी के कुश्तीघर का भी मैंबर नहीं बना था। एक बार बचपन में फुटबाल खेलने जाते समय उसके छाती में दर्द होने लगा था, उस दिन से इस तरह के दौड़ा-दौड़ी वाले खेल भी बंद हो गए थे उसके लिए। उसका दुबला-पतला शरीर देखकर किसी ने कभी भी उसके साथ मारपीट की कल्पना तक नहीं की होगी। प्रद्युम्न ने कभी सोचा था, ऐसी मारकाट वाली घटना में वह शिकार हो जाएगा। चेहरे से निकल रहे खून को हाथ से पोंछ लिया था उसने और उस समय उसे बिलकुल कष्ट का   पता नहीं चला था। वह इतना डर गया था कि रास्ते के किनारे खड़े लोगों की, दुकानों की, गाड़ी-मोटरों की तरफ ध्यान दिए बिना दौड़ता गया, दौड़ता गया, दौड़ता गया और उसको जब होश आया उस समय उसने अपने आपको अगणी काका के घर के भीतर पाया। उसको घेरकर बैठे हुए थे रुनु, झुनु, पीटर, अगणी काका और काकी।
                काकी ने उसके चेहरे से खून पोंछ दिया और सुबक-सुबक कर रो रही थी। अगणी काका ने उसे बचाया था, वह पूछने लगे, क्या हुआ था? पिटर और रुनु झुनु फुसफुसा रहे थे। उनकी बातचीत में यूनियन, ध्रुव खटुआ, रामचन्द्र मल्लिक जैसे कई नाम प्रद्युम्न के कान में पड़ने लगे। प्रद्युम्न को अचानक याद हो आया, उसको पीटने वाले आदमी का नाम है रामचंद्र मल्लिक। वह हॉलेज ट्रामर का काम करता है और ध्रुव खटुआ के यूनियन ऑफिस में उठते-बैठते देखा है प्रद्युम्न ने।
                प्रद्युम्न ने महसूस किया, उसके नाक के पास बहुत दर्द हो रहा था। सिर चकरा रहा था। पेट में गैस के गोले बन रहे थे, जैसे उलटी होने पर ठीक लगता। वह और नहीं देख पाया, फिर एक बार आंखें बंद कर ली।
                प्रद्युम्न को होश आते समय तक रात हो चुकी थी। पास में झुनु बैठकर सिर सहला रही थी। हकबकाकर उठकर बैठ गया प्रद्युम्न। जवान लड़की सटकर बैठी थी प्रद्युम्न से। फिर आए गए लोगों की  आंखों के सामने प्रद्युम्न को बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था। इतनी निर्लज्जता प्रद्युम्न के लिए असहाय थी। जबकि अगणी काका के घर में लड़कियों का इस तरह अंग-प्रदर्शन कर प्यार का ज्यादा दिखावा करना या थोड़े परिचित या अपरिचित लड़कों के साथ अंतरंगता से बातचीत करना स्वाभाविक बात थी। इन सबको स्मार्टनेस नहीं मानता था प्रद्युम्न।
                उसके नाक और होठ के ऊपर वाला हिस्सा जल रहा था। शरीर में बुखार-सा लग रहा था। सिर भारी-भारी लग रहा था। समझ गया था वह, चेहरे पर बैंडेज लगाया जा रहा है। सुनने में आया था, अगणी काका ने पुलिस से डरकर बाहर के प्राइवेट डॉक्टर को बुलाया था, तीन स्टिच लगे थे नाक के नीचे। बाहरी डॉक्टर ने तीस रुपए की फीस ली और दवाई लिख दी पचहत्तर रुपए की।
                सुनने में आया, इस मारधाड़ में ओमप्रकाश की टांग टूट गई है। अगणी काका को खबर मिलते ही बाहर निकल गए थे। पहले काकी और उसके बाद रुनु झुनु दरवाजे के पास चिटकनी लगाकर खड़ी हो गई थी अगणी काका को बाहर नहीं जाने देने के लिए। यूनियन की मारपीट का मामला। क्या पता, ध्रुव खटुआ का दल अगर ताक में बैठा होगा तो उनके ऊपर आक्रमण भी कर देगा ?
                अगणी काका डॉक्टर, डरा धमका कर, यहां तक दरवाजे के सामने से तीनों को ठेलते हुए बाहर निकल गया, अभी तक लौटा नहीं था। काकी उस समय मुंह छुपाकर बिछौने में सुबकते-सुबकते रो रही थी। उसके सामने अपने आप को अपराधी अनुभव कर रहा था प्रद्युम्न। जैसे कि उसके लिए अगणी काका के घर में अशांति है।    
                आश्चर्य होने लगा प्रद्युम्न को, अगणी काका की बात सोचकर। थाना पुलिस को पता नहीं चले सोचकर प्राइवेट डाक्टर को बुलाया था अगणी काका ने। जबकि ओमप्रकाश की टांग टूटने का सुनते ही वह खुद बाहर निकल गए। प्रद्युम्न को पता है, अगणी काका खुद हरिशंकर बाबू को लेकर थाना में जाएंगे और रिपोर्ट लिखवाएंगे। अगणी काका निश्चय ही कायर नहीं हैं, अन्यथा इस मारपीट के समय वह बाहर नहीं निकलते। तब वह प्रद्युम्न को पुलिस से दूर क्यों रखना चाहते हैं ? धूर्तता ? प्रद्युम्न जितना उनको जानता है, वह चालाक हो सकते हैं, मगर धूर्त नहीं। फिर ?
                प्रद्युम्न बिलकुल नहीं समझ पाया अगणी काका का चरित्र। प्रद्युम्न क्या समझ पाया है किसी का चरित्र ? अपने चरित्र को क्या अच्छी तरह समझ पाया है वह ? इस तरह पहचानना क्या कभी संभव है? कोई किसी को समझ पाता है कभी ? बहुत बार देखने के बाद भी यहां तक कि जन्म से ही अपने आपको देखने पर अचानक कभी-कभी अपना दूसरे किसी चेहरे को अंधेरे मं छुपाकर रखने की इच्छा होती है। कभी कभी साक्षात्कार हो जाता है उसके साथ।
                प्रद्युम्न खाना खाते समय मुंह नहीं खोल पाया। चबाने में भी कष्ट हो रहा था उसे। झुनु आकर दूध में चूर कर चली गई, रोटी को। खिलाने जा रही थी वह अपने हाथ से, मगर प्रद्युम्न ने उसे डाट दिया।
                प्रद्युम्न ने दवाइयां लेने के बाद बाहर की तरफ आकर देखा, उसके लिए बिछौना लगा दिया गया था। झुनु तो उसके पास भी नहीं आ रही थी शर्म से। ये सब झुनु के काम होंगे, निश्चय ही। काकी अभी तक औंधे मुंह सोई हुई थी बिछौने पर, और वह रो रही थी। कल प्रद्युम्न को डांटेगी, तुम्हारी वजह से ही यह सब-कुछ हुआ है। डर के मारे प्रद्युम्न चुपचाप सोया रहा। नींद नहीं आने पर भी वह सोया रहा। रुनु, झुनु बातचीत करते हुए खाना खा रही थीं। वह चुपचाप सोए हुए सब सुन रहा था। उन्होंने काकी को आवाज दी। काकी बिस्तर से नहीं उठी, उनकी बातें सुनती रही। रुनु, झुनु ने बर्तन उठा लिए, बर्तन धो दिए, आंगन की सारी चीजें भीतर ले आई, दरवाजा बंद कर दिया, वह सोते-सोते सब सुन रहा था, देख रहा था, अभी तक अगणी काका नहीं लौटे थे। कोलियरी के थाने के घंटे में ग्यारह बज गए थे, काका नहीं लौटे थे और काकी बिस्तर पर ऐसे ही सोई पड़ी थी, सिसक रही थी मगर उठ नहीं रही थी। वह सोते-सोते सब समझ रहा था।
                उसे नींद आने ही लगी थी, कि दरवाजे की खटखटाहट से उसकी नींद भंग हो गई। दौड़ कर काकी ने दरवाजा खोला। शराब की गंध फैल गई सारे घर में। नाक में कपड़ा ठूंस दिया काकी ने। अगणी काका ने मगर कुछ भी असंगत बात नहीं की। चुपचाप आंगन की तरफ जाते हुए कहने लगे- मैं कुछ भी नहीं खाऊँगा। इस आंगन में मेरा बिस्तर लगा दो।
                प्रद्युम्न को बहुत दुख लगा। उसे अपना गांव और घर याद आने लगा। उसके परिवार में इस तरह कोई शराब नहीं पीता था। अगणी काका शराबी हैं, पता चलने पर पिताजी शायद उसे कहेंगे, यह घर छोड़ कर दूसरी जगह रहने के लिए। अन्यथा कोलियरी की नौकरी छोड़ने की भी जिद कर सकते हैं वह। प्रद्युम्न को दुख होने लगा, वह भी किसी दिन अगणी काका की तरह हो जाएगा ? फिर उसे और क्या होने की इच्छा थी ? और किस की तरह ?
                सोचते-सोचते सो गया था प्रद्युम्न। आधी रात को, उसने अनुभव किया कि कोई उसके बिस्तर में आया है, अगणी काका के इस छोटे दो कमरे वाले घर में, बेड रुम की लकड़ी की खाट पर काकी और उनका बेटा सो रहा था। फर्श पर दीवार की तरफ दोनों बहिनें रुनु झुनु सो रही थीं। बेडरुम और ड्राइंग रुम के दरवाजों पर किवाड़ नहीं लगे हुए थे। ड्रांइंग रुम में रस्सी की खाट पर प्रद्युम्न सोता था।
                तब कौन सोया है उसके पास ? मीनाक्षी ? चौंक गया था प्रद्युम्न। नींद टूट गई थी। नहीं, मीनाक्षी नहीं है, तो रुनु है क्या ? रुनु के साथ उसकी शादी करने के लिए अगणी काका सपने देखते हैं। प्रद्युम्न के साथ या समारु खड़िया के साथ ? रुनु अवश्य ही लज्जाशील थी। अभी तक प्रद्युम्न के साथ बातचीत नहीं की थी उसने। उसे देखते ही भाग जाती है। वह आकर बिस्तर पर सो गई है अश्लील आशा से ? पलटकर खोजी निगाहों से देखा प्रद्युम्न ने।नहीं, रुनु नहीं है।
                “झुनु, तुम ?”
                “मैं तुमसे प्यार करती हूं, प्रद्युम्न भाई।
                “ये सब ठीक नहीं है, झुनु ?”
                “क्यों ठीक नहीं है ?”
                “यह सब पाप है।
                “क्यों पाप ?”
                “अगणी काका और काकी को पता चलने पर गुस्सा करेंगे।
                “गुस्सा करने दो, वे कितने गुणवान हैं, मुझे भी पता है। वे मेरे ऊपर गुस्सा नहीं कर पाएंगे।
                “क्या जानती हो, उनके गुणों के बारे में।
                “कुछ नहीं।
                “कहो न, क्या जानती हो ?”
                “पापा की एक छत्तीसगढ़ी रखैल हैं और....
                “और ?”
                “आप किसी को नहीं कहोगे तो ?” झुनु और नजदीक आ गई प्रद्युम्न के पास। उसके कंधे पर अपना सिर रखकर प्रद्युम्न के कान के पास गरम सांस छोड़ते हुए कहने लगी झुनु :
                “सोनू, पापा का बेटा नहीं है।
                “कैसे पता चला तुम्हें ?”
                “जानती हूँ। पापा और मम्मी के बीच में एक बार भयंकर झगड़ा हुआ था। कोलियरी के बहुत सारे लोग जानते हैं।
                स्तब्ध रह गया प्रद्युम्न। उसका शरीर सिहर उठा एक घृणित अश्लीलता के साथ। कितना वीभत्स परिवेश !
                झुनु कहने लगी, तुम्हें कोई प्यार नहीं करता, भाई, केवल मेरे सिवाय। तुम पर मेरे माता-पिता जो अपनापन दिखा रहे हैं, वे सब रुनु के साथ तुम्हारी शादी के लिए। अन्यथा, जब पहली बार तुम आए थे, मेरी मां कैसे गरगर कर रही थी, देखा नहीं था ?”
                पास में सोई हुई है झुनु। उसका हाथ बढ़ता चला जा रहा था सब अ-जगह पर। मगर प्रद्युम्न को ठंडा मार दिया था जैसे। गले से आवाज नहीं निकल रही थी। झुनु फिर कहने लगी, “रुनु पीटर को प्यार करती है। उसके साथ दो-तीन बार हम-बिस्तर हुई है। एक बार तो मैंने खुद भी देखा था। उसके गुण भी मालूम है। तो प्रद्युम्न भाई, क्या तुम रुनु से शादी कर सकते हो ? मेरी कोई आपत्ति नहीं है। रुनु की पीटर के साथ शादी नहीं हो सकती। पापा राजी नहीं होंगे क्रिश्चियन जमाई के लिए। आप रुनु के साथ शादी कर लो। वह भी मना नहीं करेगी। फिर भी, मैं आपसे प्यार करती हूं, हमेशा प्यार करती रहूंगी। कहीं और शादी होने पर भी मैं आपसे प्यार करती रहूंगी।
                सांस रुक जाएगी मानो प्रद्युम्न की। झुनु सक्रिय हो गई थी। अगणी काका उठ जाएंगे इन धस्ता-धस्ती शब्दों से ? झुनु चिपकती जा रही थी प्रद्युम्न के ऊपर। आप क्या पुरुष नहीं हो, प्रद्युम्न भाई ? प्रद्युम्न को उलटी आने लगी। सिर क्यों घुमा रहे हो ? आप तो बिलकुल भी मर्द नहीं हो, प्रद्युम्न ? झुनु उत्तेजनावश कांप रही थी। धीरे-धीरे प्रद्युम्न का भी खून गरम होने लगा। अगणी काका, काकी, माता, पिता सभी उसकी नजरों से ओझल होते जा रहे थे। केवल बिस्तर पर झुनु का अस्तित्व ही नजर आने लगा था। क्या कहेगा प्रद्युम्न ? किस तरह रोक पाएगा पाप के इस तूफान को ? किस तरह ? मीनाक्षी, कहां हो तुम, मीनाक्षी ?आओ, देखती जाओ मेरे पांव किस तरह फिसलते जा रहे हैं।
                आश्चर्य ! इस समय प्रद्युम्न को केवल मीनाक्षी की बात याद आती थी ?
 








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