तृतीय परिच्छेद
तृतीय परिच्छेद
अण्डरग्राउण्ड से बाहर आकर हाँस्पिटल चला गया प्रद्युम्न सिक लीव लेने के लिए। डॉक्टर ने पूछा: “क्या हुआ?’’
“पेट दर्द?’’,
पेट दबाकर देखते हुए डॉक्टर ने कहा :
“दस्ते कैसे लग रही हैं?’’
“ठीक-ठीक’’
“तुम्हारा नाम?’’
प्रद्युम्न क्या कहेगा? उसे पता है कि वह अपना नाम नहीं कह पाएगा, उसका सारा परिचय समारु खड़िया के भीतर ही सीमित है। जबकि प्रद्युम्न मिश्रा के नाम का कोई अस्तित्व नहीं है? उसका कॉलेज का ज्ञान, इक्कीस-बाईस सालों तक प्रद्युम्न मिश्रा के रूप जीवन-यापन करना-सारा व्यर्थ हो गया। प्रद्युम्न का मन बुरी तरह से दुखी हो गया।
पेट दर्द के बहाने सिक लीव लेने आए प्रद्युम्न की और सिक लीव ड्यू नहीं थी। इस पीरीयड में उसे वेतन नहीं मिलेगा। हाँस्पिटल के कंपाउण्ड से बाहर आकर पेट दर्द की दवाई फेंक दी प्रद्युम्न ने। समारु खड़िया को पेट दर्द हो रहा है, प्रद्युम्न मिश्रा को नहीं। आखिरकार हॉस्पिटल के खाता पत्र में वह नाम लिखा गया है। प्रद्युम्न को याद आया, कि अगणी काका ने काकी के कहने पर प्रद्युम्न के लिए एम्प्लोयमेंट एक्सचेंज से कार्ड खरीद लिया था। उस दिन प्रद्युम्न को कहा था, देख बाबू, अगर तुम थ्रू प्रॉपर चैनल कोशिश करेगा नौकरी के लिए तो कम से कम चार-पांच साल लग जाएगे इंटरव्यू कॉल आने में। उसके बाद तुम्हारा सिलेक्शन होगा या नहीं, तुम्हें नौकरी मिलेगी या नहीं, इस बात की कोई गारंटी नहीं है। सबसे पहले तुम्हें एम्प्लोयमेंट एक्सचेंज के सामने लुंगी पहन कर खड़े होकर अपना नाम रजिस्ट्रेशन करवाना पड़ेगा। उसमें भी कई प्रतिबंध है, तुम्हें लोकल का आदमी होना चाहिए, अनपढ़ होना चाहिए, एन॰ए॰सी॰ वार्ड में तुम्हारा नाम गरीबी रेखा से नीचे होना चाहिए। पैसे मनुष्य के लिए बहुत बड़ा फैक्टर है। पैसों के खातिर अपना अस्तित्व भूल गया, एक आदिवासी युवक की भूमिका में अवतीर्ण हो गया प्रद्युम्न इस कोलियरी में।
पहली बार अगणी काका यह प्रस्ताव लाये थे। बिलकुल राजी नहीं हुआ था प्रद्युम्न। जो भी हो, आखिरकार ब्राह्मण घर का बेटा था। बी.ए. तक पढ़ने के बाद, वह समारू खड़िआ के नाम से अशिक्षित आदिवासी युवक के रूप में काम करेगा, क्या उसका आत्म-सम्मान नहीं है?
मेम्बर या पंचायत के चेयरमैन को कुछ हाथ खर्च देकर सर्टीफिकेट ले लिया होगा। उसके बाद इंटरव्यू कॉल निकालने के लिए एक्सचेंज वालों को पकड़कर, कुछ पैसे खर्च करने पर उनकी दया से कॉल निकाला जाएगा। कॉल मिलने के बाद इंटरव्यू के समय कोयला खदान के बड़े-बड़े अधिकारियों से भेंट कर हाथ खर्च देकर पास करना होगा। उसके बाद तुम्हें तहसीलदार के पास डेढ़ रुपए की कोर्ट फीस जमा कर अप्लाई करना पड़ेगा रेसिडेन्सियल सर्टिफिकेट के लिए। वह लिख देगा रेवन्यू इंस्पेक्टर के पास। उसे भी कुछ देना पड़ेगा। वह लिख देगा कि तुम्हारा अमुक तहसील में, अमुक मौजा में, अमुक जगह पर इतने एकड़, इतने डेसीमिल जमीन है, जो कि कोयला खदान के पांच किलोमीटर की परिधि के अंदर है। उसके बाद तहसीलदार के कोर्ट में बाबू से लेकर चपरासी तक, सभी को चाय-नाश्ते का खर्च देने के बाद तुम्हें मेडिकल चेकअप को भेजा जाएगा। जहाँ पर तुम्हें अपनी मेडिकल फिटनेस के लिए कुछ पैसा डॉक्टरों को टेबल के नीचे से देना पड़ेगा। सब जगह पैसों का खेल है, बाबू। इससे यही सुविधा है, बाहर मिलने वाले इंटरव्यू कॉल कार्ड की कीमत दो हजार रुपए। बस, जिस दल से खरीदोगे, वे रिक्स लेंगे तुम्हारे इंटरव्यू रेसिडेन्सियल सर्टीफिकेट, मेडिकल फिटनेस से लेकर सब कुछ पार कराने का। तुम्हें और कुछ हाथ खर्च नहीं देना पड़ेगा।
प्रद्युम्न के पास थी यह अलग दुनिया। इस दुनिया में रीति-नीति, यार-दोस्त, मूल्यबोध इन सभी का पूर्व से कोई परिचय नहीं। क्या सही, क्या गलत-प्रद्युम्न समझ नहीं पा रहा था, किन्तु समारु खड़िया के नाम से इंटरव्यू कॉल पांच हजार में खरीदकर नौकरी पाने की इच्छा नहीं थी उसकी। जितना कुछ होने पर भी वह प्रद्युम्न मिश्रा है, उसके पिता सर्वेश्वर मिश्रा, रिटायर्ड हेडमास्टर। वह कॉलेज में पढ़ा-लिखा है।
अगणी काका उसको समझा-समझा कर थक गए थे। तुम्हें किस चीज की आपत्ति है, कहो तो? समारु खड़िया नाम का कोई आदमी नहीं है, जो आकर क्लैम करेगा। उसके अलावा, आज के जमाने में पढ़ाई का क्या महत्त्व है? अनेक एम.ए. पढ़े लिखे लोग लोड़र में भर्ती हुए है। सोच लो तुम एक अभिनेता हो। समारु खड़िया की भूमिका में अभिनय करने आए हो। यह कोलियरी एक रंगमंच है। यहाँ समारु खड़िया की भूमिका अदा करने से मिलेंगे हर महीने दो-तीन हजार रुपए। बहुत सारे लोग तो पेट भरने के लिए अभिनय को पेशे के रूप में इस्तेमाल करते हैं। देखो बाबू, इससे और कोई सस्ता उपाय नहीं है कोलियरी में नौकरी पाने के लिए। अगर मन है तो करो, नहीं तो चले जाओ।
गांव लौट जाने की बात सुनने मात्र से प्रद्युम्न का मन विषाद से भर उठा। उस गांव में जिंदगी जीना दुष्कर, साइकिल लेकर तीन किलोमीटर जाना पड़ता है कस्बे की बाज़ार को। दोस्तों के साथ अपनी इंफिरियटी कॉम्प्लेक्स छुपा कर घुमो। बहिनों द्वारा निकम्मेपन और स्वार्थ-परायणता का आरोप, पिताजी की डांट-फटकार, माँ का दीर्घश्वास, भाभीजी का उसके चाय पीने को लेकर इंगितपूर्ण हंसी याद कर प्रद्युम्न को अपने पुराने जीवन में लौटने का मन नहीं हो रहा था। जबकि उस पुराने जीवन के प्रद्युम्न मिश्रा पर उसके अस्तित्व पर, कितना मोह था। फिर भी उस पुराने जीवन के प्रद्युम्न मिश्रा को बदल कर नए जीवन में समारु खड़िया होने के लिए उसका मन नहीं मान रहा था। उसके बावजूद भी बाध्य होकर वह समारु खड़िया का जीवन जीने के लिए राजी हो गया। पैसे जीवन में एक बहुत बड़ा फेक्टर है।
प्रद्युम्न खड़ा हो गया। कहां जाएगा वह? अगर अब अगणी काका के घर जाऊँगा तो नहाना धोना हो जाएगा। मगर वहाँ जाने की इच्छा नहीं हुई। क्योंकि काकी देखते ही उसे एक के बाद एक काम बताना शुरू कर देगी। तथापि अगणी काका के घर जाने के सिवाय और कोई चारा भी नहीं था। ड्यूटी के इन मैल-कुचेले हॉफ पेंट और शर्ट को खोले बिना वह जा भी कहाँ सकता था। अगणी काका का घर किसी जेल खाने से कम नहीं था। एक असंस्कृत, असभ्य घर। इस कोलियरी में अधिकांश लोग ऐसा ही असभ्य जीवन जीते हैं। सामाजिक दायित्व बोध कुछ कम ही है उनका। यहाँ आने के बाद उसे उड़ती हुई खबर मिली, कि अगणी काका के दो लड़कियाँ पैदा होने के बाद इमरजेंसी पीरियड़ में उन्हें जबरदस्ती अपना फैमिल प्लानिंग ऑपरेशन करवाना पड़ा था। अब पांच छ साल पहले उनके यहाँ एक लड़का पैदा हुआ। अगणी काका की छोटी बेटी बहुत ही उद्दण्डी और सेक्सी थी। हर समय लड़कों के साथ उठना-बैठना था उसका। बीच-बीच में रात-रात भर किसी लड़के के साथ चोरी छुपे कहीं भाग जाती थी, यह बात भी प्रद्युम्न को सुनने को मिली थी। बड़ी लड़की थोड़ी शर्मीली किस्म की थी, मगर बहुत ही स्वार्थी। अपने स्वार्थ के सिवाय और कोई चीज समझ में नहीं आती थी। उसका भी एक क्रिश्चियन धर्म भाई है। धर्म भाई के प्रति उसका इतना आबसेशन है कि कोई उदार आदमी भी अगर देखेगा तो संकोच में पड़ जाएगा, उन्हें देख कर।
अगणी काका के सारे गुणों के भीतर दो दुर्गुण भी हैं। पहला तो वह रात को पीकर घर आते हैं, दूसरा इस खनि-अंचल में नीचे की बस्ती में एक रखैल भी है उनकी। कभी-कभी गुस्से में काकी चिल्लाने लगती है- जाओ, जाओ, तुम अपनी छत्तीसगढ़ वाली रखैल के घर जाकर रहो।
दो बड़ी-बड़ी लड़कियों के सामने अगणी काका और काकी का इस तरह लड़ना-झगड़ना बहुत ही अश्लील लगने लगता था प्रद्युम्न को। मगर सोचने से भी आश्चर्य लगता था उसे कि जितनी भी शराब पीने पर भी, जितना क्रोध आने पर भी अगणी काका ने कभी भी काकी को छोटे पुत्र के जन्म के रहस्य के बारे में नहीं पूछा। कभी दोषारोपण भी नहीं किया। सोनू बेटे को प्यार देने में भी कोई कमी नहीं बरती। ऐसे एक परिवार के भीतर वह बंदी हो जाएगा, कभी कल्पना भी नहीं की थी प्रद्युम्न ने। पहले कभी-कभार अगणी काका गांव को जाते थे। कोयला खदान की नौकरी थी। अच्छे पैसों का रोजगार हो जाता था। मुट्ठी-मुट्ठी भर पैसे गांव में खर्च करके लौटता था वह। गांव में सभी उसे विस्मय की आंखों से देखते थे, और तारीफों के पुल बाँधते थे। इस अंचल में आने से पहले कोयले की खदान और अगणी काका के विषय में उसकी कल्पना में एक अद्भुत रोमांटिक धारणा थी! जो यहाँ आते ही चूर-चूर हो गई।
प्रद्युम्न ने देखा, कि केवल अगणी काका ही ऐसा नहीं हैं, यहाँ अधिक-कम सभी लोग ऐसे ही हैं। कोई किसी की पत्नी को लेकर भाग जाता, कोई-कोई दो, तीन पत्नियों को रखता, बड़े-बड़े लड़के-लड़कियों को छोड़कर चालीस-पैंतालीस साल की औरत अठारह-उन्नीस साल के लड़के के साथ भाग जाती, बेटे के लिए लड़की देखने गया बाप द्वारा उसी लड़की के साथ शादी कर लौट आना, ऐसे सेक्स स्कैण्डल एक के बाद एक देखने को मिलते थे, कॉलोनी में प्रद्युम्न को। तटीय इलाके के शासनीआ-गांव से आया था प्रद्युम्न। उसके घर कोई त्रिसंध्या नहीं करता था और ना ही कोई यजमानी। फिर भी ब्राह्मण होने के कारण एक सूक्ष्म श्रेष्ठ जाति का बोध समाया हुआ था उसमें और सामाजिक ढांचे के बाहर रिवोल्ट करने का साहस भी नहीं था उसमें।
अन्यथा मीनाक्षी के साथ अपने संबंध को बहुत पहले अपने पिता के सामने खोल दिया होता। मगर उसे पता है, वह नहीं कर पाएगा। कभी भी नहीं कर पाएगा। उसकी तीन बहिनों की शादी तक नहीं हुई थी। ऐसे समय में अगर वह जबरदस्ती विजातीय शादी कर लेता तो तीन बहिनों के भविष्य का क्या होगा? तुम अपनी बहिनों के बारे में ही सोच रहे हो प्रद्युम्न, कभी भी नहीं सोचा मेरे बारे में, कि मेरा क्या होगा?
प्रद्युम्न को याद आ गया, पुरी के बलगंडी बस्ती में उसके घर में रहने वाले किरायेदार, पुरी एस॰डी॰जे॰एम॰कोर्ट में काम करने वाले कुलमणी बाबू की बेटी मीनाक्षी बलवंत राय का चेहरा। तकिए के ऊपर रखा, मीनाक्षी का ऊपर उठता हुआ चेहरा। छलकती हुई, सूजी हुई, दो लाल-लाल आंखे। सिर के खुले बाल। एक कॉटन साड़ी, बहुत मांड दी हुई, इस्तरी कर खड़-खड़ करने वाली कॉटन साड़ी को पहन रखा था मीनाक्षी ने। नाक से सिंघाणी को ऊपर खींचते हुए वह कहने लगी, जब तुमने मुझे प्यार किया, प्रद्युम्न जब तुमने पहली बार मुझे चुंबन दिया, मुझे चिट्ठी लिखी, चोरी छुपे सिनेमा जाने के लिए, समुद्र किनारे बंगाली टूरिस्टों के मेले में जब सपने देखने के लिए उत्साहित किया, उस समय तो तुम छोटे बच्चे नहीं थे। जवान हो चुके थे। दुनियादारी की सारी खराब-अच्छी चीजें समझ सकते थे। उस समय क्या तुम्हें पता नहीं थी कि मैं क्षत्रिय लड़की हूँ? मेरे पिताजी सामान्य क्लर्क थे। मैं तुमसे उम्र में दो-तीन साल बड़ी थी। और तुम शासनीआ ब्राह्मण परिवार के हो और तुम्हारी तीन अविवाहित बहिनें भी हैं। है तुम्हारे पास सामाजिकता, ये सब पता हीं था? कहो, कहो, क्यों उस समय तुम आगे आए? जिन होठों को तुमने झूठा किया, उन उच्छिष्ट होठों को मैं और किसके सामने अर्पण करूंगी, प्रद्युम्न?
प्रद्युम्न असहाय हो गया था। उसे मीनाक्षी से प्यार है? पता नहीं। क्या है वह प्यार? पुरी में रहते समय प्रचंड भाव से आकर्षित करती थी मीनाक्षी उसे गांव में रहते समय वह सोचता था मीनाक्षी को भूल जाना उचित है, और इस कोयलांचल में आने के बाद उसे समझ में आया कि वह मीनाक्षी को कभी भी इस अंचल में नहीं ला पाएगा, क्योंकि यहाँ मीनाक्षी नहीं चल पाएगी और उस समय उसे याद आया कि मीनाक्षी थी प्रेयसी और जैसे मीनाक्षी के साथ उसका प्यार मधुर स्मृति बन कर रह गया है।
प्रद्युम्न लौट आया अगणी काका के घर को। घर के सामने एक नीम का पेड़ और चबूतरे के ऊपर अगणी काका की छोटी बेटी ने अड्डा जमा रखा है। दो लड़के उसके पास खड़े थे। एक लड़का साइकिल पर बैठा हुआ, और एक चबूतरे के ऊपर पैर रख कर खड़ा था। आस-पास के लोग कौतुहल नजरों से उन्हें देख रहे थे। जबकि झुनू का उस तरफ ध्यान नहीं था।
घर के भीतर चला गया प्रद्युम्न। प्लास्टिक हेलमेट बहुत समय से सिर में, हाथ में बोझ की तरह लग रहा था, उसको टेबल के ऊपर रख कर, टिन चेयर में बैठ कर जूते के फीते खोलने लगा। इस कोयले की खदान के माइनर्स क्वार्टर बहुत ही छोटे-छोटे थे। आठ फुट बाइ नौ फुट के दो कमरें, एस्बेस्टास की छत, भीतर में एक बरामदा, जहाँ रसोई की जाती है, उसके नीचे पानी की टंकी, एक प्लेटफॉर्म स्नान करने के लिए। आंगण भी ज्यादा बड़ा नहीं था। वहाँ एक तार खींचा हुआ था कपड़े सुखाने के लिए। आंगन में एक अमरूद का पेड़, उस तरफ शौचालय, कोयला रखने की जगह। इतने छोटे घर में इतने अधिक लोग रहते थे। यह आश्यर्य की बात थी। घर में सारे सामान पैक होकर रखे हुए थे। खटिया के नीचे ट्रंक, बॉक्स, टूटी लकड़ी का संदूक, रुना और झूना के पुरानी हुई किताबें, जूते, टूटे हुए इलेक्ट्रिक तार, फ्यूज्ड बार लाइट- ये सारी चीजें दोनों कमरों में दोनों पलंगों के नीचे रखे हुए थे। एक स्टील फ्रेम में प्लास्टिक फीतों से बुनी खाट, जिसे फोल्ड किया जा सकता था, फोल्डिंग कर बाहर के कमरे में दीवार के पास सटा कर रखा हुआ था। एक पुराने धड़धड़ाने वाले टेबल के ऊपर एक ब्लैक एण्ड वाइट टेलीविजन सेट भीतर वाले घर की दीवारों की थाक में रखे हुए स्टील के बासन, सिंदूर, कांच की चूड़ियां, पाउडर, क्रीम, बेनी पर बांधने वाला रबर और दीवार पर टंगा हुआ दर्पण। बहुत ही निम्नस्तरीय परिवार की तरह सजा हुआ था घर।
इसकी तुलना में प्रद्युम्न के गांव वाला घर और ज्यादा सुरुचिपूर्ण संपन्न ढंग से सजा हुआ था। उसका कारण थीं प्रद्युम्न की बहिनें। सभी ज्यादा पढ़ी-लिखी और गृह-सज्जा में पारंगत। उनका खपरैल वाला घर होने के बावजूद भी देखने पर संभ्रान्त लोगों के घर जैसा लगेगा। प्रद्युम्न ठीक से समझ नहीं पा रहा था कि अगणी काका के घर में किस चीज की कमी है और उसके घर क्या चीज ज्यादा है-फिर भी उसे लगता है कि उसके घर में सम्पन्नता दिखाई पड़ती है जबकि अगणी काका के घर में एक दारिद्रय। भले ही, अगणी काका के पास बहुत पैसे हैं, उसकी मासिक तनख्वाह के आगे प्रद्युम्न के पिताजी का रोजगार कुछ भी नहीं है।
प्रद्युम्न शयन-कक्ष की ओर जाते हुए अचानक चौंक कर खड़ा हो गया। खटिया के ऊपर अगणी काका की बड़ी बेटी रूनु और उसका धर्म भाई सोया हुआ था। किसी अश्लील भंगिमा में सोए हुए नहीं थे। फिर भी, एक ही बिस्तर पर। शायद प्रद्युम्न के घर के अंदर घुसने से पहले बात-चीत कर रहे थे। अभी अपने धर्म भाई की ओर पीठ करके सोई हुई थी रूनु और उसका धर्म भाई सोते हुए एक हिन्दी फिल्म की पत्रिका देख रहा था।
रूनु शर्माती है प्रद्युम्न से। बात भी नहीं करती है। अब प्रद्युम्न की ओर पीठ करके सोई हुई थी। उसका धर्म भाई पीटर को प्रद्युम्न को देख कर बिल्कुल भी संकोच नहीं हुआ। किसी भी तरह का ग्लानिबोध भी नहीं। निर्विकार भाव से सोते हुए पत्रिका के ऊपर अपनी आंखें गड़ाए हुए था। प्रद्युम्न को यह दृश्य बहुत अश्लील लग रहा था। क्यों? प्रद्युम्न का मन बहुत ही रक्षणशील था? अचानक उसके मन में मीनाक्षी की बातें याद आने लगी। मीनाक्षी के साथ इस तरह खाट पर एक साथ सोना संभव नहीं हुआ। उस समय उनके अंदर प्रेम बिलकुल प्लेटोनिक नहीं था। उपभोग कभी भी नहीं किया उसने मीनाक्षी का। वह इस तरह की लड़की भी नहीं थी, जो विवाह से पूर्व अपना शरीर दे देती। फिर भी वे दोनों बहुत आगे निकल गए थे।
इस बेड़रूम से होकर आंगन की ओर जाना पड़ता था। चला गया प्रद्युम्न। यहाँ टंकी थी। पास में नहाने के लिए सीमेंट का प्लेटफॉर्म। पानी में बहुत समय तक हाथ डालकर बैठा रहा प्रद्युम्न अन्यमनस्क भाव से। उसे पता था कि अगणी काका रूनु के साथ उसकी शादी करने के बारे में सोच रहे थे, प्रद्युम्न का आखिरकर इस नौकरी के लिए ग्रेटफुल होना वाजिब है अगणी काका के प्रति, आज बेडरूम के इस दृश्य को देख कर प्रद्युम्न का क्रोधित होना उचित था? मीनाक्षी क्या इंतजार कर रही होगी प्रद्युम्न का, अभी भी?
प्रद्युम्न के सीने से एक दीर्घ-श्वास बाहर निकली। जीवन बहुत ही विचित्र है। किसका जीवन? प्रद्युम्न का, या समारु खड़िया का? वह वास्तव में कौन है? प्रद्युम्न समारु खड़िया? जीवन जीने की कुछ सार्थकता है सचमुच में? मन उदास हो गया प्रद्युम्न का।
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