द्वादश परिच्छेद


द्वादश परिच्छेद

                पहले से सारा शरीर दर्द कर रहा था। प्रद्युम्न समझ पा रहा था, उसको बुखार चढ़ रहा था।
                स्टिच काटने आई नर्स ने उसके सिर पर हाथ रखकर कहा था, “तुम्हें तो बुखार है। डॉक्टर को दिखा दीजिए। शायद स्टिच पक गए होंगे।
                प्रद्युम्न को डॉक्टर-खाना बिलकुल अच्छा नहीं लगता था। डॉक्टर-खाने में एक प्रकार की गंध आती है- जो उसे ज्यादा अस्वस्थ कर देती है। उसके अलावा वह एक सामान्य बदली लोडर उसका नाम समारु खडिया। डॉक्टर के पास दिखाने के लिए घंट-घटे तक खड़ा रहना पड़ता है लाइन में, जो उसे पसंद नहीं है। फिर भी जाना पड़ेगा। वह गया था और डॉक्टर ने हमेशा की तरह अच्छी तरह देखे बिना उसके प्रिस्क्रिपशन पर दस्तखत कर दिए थे। उसने अपनी तरफ से कहा था, “सर स्टिच हुए आठ दिन हो गए हैं।डाक्टर ने बिना कुछ बोले स्टिच काटने के लिए लिख दिया था।
                नर्स ने एक ही झटके में खींच लिया था हुए घाव पर लगे निकोप्लास्ट को। उसके साथ निकल गया दवाई लगा गॉज और झुककर घाव को देखने लगी नर्स, इतने नजदीक से आंख मिलाकर घुमाते समय प्रद्युम्न देख पाया था नर्स के नाक के नीचे उठे हुए छोटे-छोटे पतले काले रोम। नर्स ने कहा, “आः दो स्टिच पक गए हैं।
                स्टिच काटकर एक बुखार की टेबलेट दे दी नर्स ने। वह कहने लगी, “इस टेबलेट को खाने से बुखार कम हो जाएगा। मगर आप किसी डॉक्टर को दिखा दो। हाई एंटी बायोटिक्स देनी चाहिए। आपके स्टिच काट दिए हैं। मगर दो जगह से अभी भी पीप निकल रही है।
                हॉस्पिटल के ड्रेसिंग रुम की कांच की खिड़की में अपना चेहरा देखा था प्रद्युम्न ने। नाक के नीचे एक असुंदर दाग हो गया था। प्रद्युमन ने सोच लिया कि वह बिलकुल सुंदर नहीं है। अपना चेहरा देखकर उसे बहुत असंतोष हो रहा था। शाल में जबड़े की दोनों हड्डियां बाहर निकली हुई थी, जिससे उसे लग रहा था वह उम्र-दराज हो गया हो। एक पतले हड्डीनुमा शरीर पर वयस्क चेहरा। उसके ऊपर कटने का यह दाग। प्रद्युम्न को मन में आने लगा, निश्चय ही वह वीभत्स दिखाई दे रहा होगा। उसका मन खराब हो गया था। और डॉक्टर के पास नहीं गया वह। हॉस्पिटल से बाहर आने पर उसे प्रचंड ठंड लगने लगी। दोनों पांव सुन्न हो गए थे। वह कहां जाएगा ? अगणी काका के घर ? होटल ? पान-दुकान ? पोस्ट-ऑफिस ? अब तक तीन दिन हो गए स्ट्राइक चलते हुए। ध्रुव खटुआ के दल ने जबरदस्ती स्ट्राइक का आह्वान किया है। माइनिंग स्टॉफ को छोड़कर एक भी मजदूर नीचे नहीं जा रहा था। चारों तरफ टेंशन ही टेंशन। लोग प्रद्युम्न को देखते ही साथ छोड़कर चले जाते थे। वह तो नए यूनियन का बॉडी मेम्बर। पुराने यूनियन के लोग उसे देखने पर पीठ घुमा देते थे। साधारण लोग, पता नहीं क्यों, सहज नहीं हो पाते थे प्रद्युम्न के पास।
                प्रद्युम्न फिर जाएगा कहाँ ? इतने दिन बीत गए मगर अभी तक उसने अपने आपको अगणी काका के घर का मैंबर नहीं समझा था। अभी भी वह अपने आप को मेहमान समझता था। एक कमरे से दूसरे कमरे में सीधा जा नहीं पाता था। घड़ाम के साथ खाट पर जाकर बैठ नहीं पाता ता। ऊंची आवाज में कह नहीं सकता था, भूख लगी है, जल्दी से खाना खिलाओ। घर जाने पर, ज्यादा से ज्यादा टिन चेयर पर चुपचाप बैठता।
                प्रद्युम्न को मगर आखिरकार जरूरत थी एक खटिया, बिस्तर और रजाई की। प्रद्युम्न के चारों ओर बुखार का ठंडा वलय। इस वलय के भीतर वह खो जाना चाहता है अपने को छोड़कर। वह अपने भीतर डूबना चाहता था। वह चाहता है, कुछ समय अकेले में बिताना। मगर उसका घर नहीं है। घर नहीं होने के कारण बहुत असहाय लगता है प्रद्युम्न को और घर-गांव, माँ, बाप और बड़ी बहनों की बातें याद आने लगी उसे। प्रद्युम्न का मन उदास हो गया।
                प्रद्युम्न खुद बिना जाने होटल के सामने पहुंच गया था। एक बेंच पर बैठा था लकड़ी के खंभे का सहारा लिए। नाक से गरम हवा निकल रही थी। स्टिच कटी हुई जगह पर धक-धक हो रहा था। जन्म से ही दुबला लड़का था वह। मां कहती थी, थोड़ा भी कष्ट सहन नहीं पाता है यह। मगर वह सब कुछ कैसे सहन कर पा रहा है- इस चेहरे पर लगे हुए स्टिच और देह के बुखार को। प्रद्युम्न ने क्या खुद भी सोचा था, गांव से इतने दूर आकर रहने के लिए, अकेले ? जब वह गांव में था, अकेले किसी कमरे में सो नहीं पाता था वह। डर लगता था उसे। अब वह बिलकुल अकेले कमरे में सोता है। प्रद्युम्न की बचपन के दिनों से ही आदत थीखाट पर जाते ही इधर-उधर लोटने की। छटपटाता था वह, अचानक नींद नहीं आती थी उसे। नींद में भी  वह बहुत छटपटाता था, कहकर घर वाले सभी चिढ़ाते थे उसे। मगर अगणी काका के घर में वह एक बार भी  इधर-उधर नहीं लौटता है, कहीं खाट की आवाज से काका और काकी की नींद न टूट जाए। किस तरह अपने आप को बदल दिया प्रद्युम्न ने। वह क्या तब इस तरह बदल देगा अपना जीवन? इस तरह समारु खड़िया बनकर बीता देगा सारा जीवन ?              
                होटल के लड़के को बुलाकर एक कप चाय और एक गिलास पानी का आर्डर दिया। नर्स द्वारा दी हुई बुखार की गोली को वह खा गया और ऊपर पानी पी लिया। जैसे ही चाय का कप उठाने जा रहा था, अचानक उसे सुनाई पड़ा किसी को कहते हुए, “नमस्कार। बहुत तेज स्वर में कहा था। सिर हिलाने में कष्ट हो रहा ता उसे। फिर भी उसने सर घुमाया। उसके पास में बैठा हुआ मजदूर उसे नमस्कार कर रहा था। वह आदमी पिया हुआ था। प्रद्युम्न पहचान गया था, देशी दारु की दुर्गंध।
                पहले इसकी गंध से इस तरह परिचित नहीं था वह। यहां आकर दारु के इतने प्रचलन को देखकर धीरे-धीरे उसमें दारु के प्रति अपने भय और उत्तेजना में कमी आती जा रही थी। वह आदमी पिया हुआ है, इसलिए ऊंची आवाज में नमस्कार कर रहा है।
                प्रद्युम्न ने अपने अनुभव से जान लिया था, दारु पीने वाले लोग अनजाने में ऊंची आवाज में बात करते हैं। वे नहीं समझ पाते, उनके गले का स्वर-ग्राम कितना ऊंचा उठता है। प्रद्युम्न जब गांव में था, कभी दोस्तों के साथ बातचीत करते समय सहज नहीं हो पाता था। हर समय उसके मन में आता था, उसकी पर्सनलिटी में ऐसी क्या कमियाँ रह गई है कि इसके सारे दोस्त लोग उसकी खातिर नहीं करते। उससे भी  ज्यादा गांव के बस-स्टेशन पर, साक्षी गोपाल या पुरी में चाय की दुकान में घुसकर एक कप चाय मांगने पर भी होटल के वेटर उसकी बात नहीं सुनते थे। मगर इस कोलियरी में आने के बाद बदल गया है उसका अपना व्यक्तित्व। मगर कैसा यह विरोधाभास है ? यहाँ पर खो दिया है उसने अपना आत्म-परिचय। शायद ऐसा ही होता है। किसी चीज को पाने के लिए किसी और चीज को खोना पड़ता है। यहां सभी लोग जानते हैं कि उसका नाम समारु खड़िया नहीं है। वह एक ब्राह्मण का लड़का है, यह भी सभी को मालूम है। समारु खड़िया नाम मानो उसका मुखौटा हो। वह उस मुखौटे को पहनकर यहाँ अभिनय कर रहा है और मुखौटे के पीछे एक अलग आदमी है, यह भी सभी जानते हैं, फिर भी, प्रद्युम्न को दुखी होने की क्या जरुरत है ? क्योंकि वह सोचता है, उसका आत्म-परिचय खो गया है।
                वह आदमी कहने लगा- यह स्ट्राइक साला देशमुख साहब की चाल। क्या कहते हो ? ध्रुव खटुआ की मैं नस-नस जानता हूँ। साला, मैनेजमेंट का दलाल।
                तैयार नहीं था प्रद्युम्न। ये सारे प्रसंग इस होटल में उठाना ठीक नहीं थे। खटुआ दल का कोई आदमी होगा तो निश्चय झमेला करेगा। वह जल्दी-जल्दी चाय पीकर उठ खड़ा हुआ। उस आदमी के कंधे पर हाथ रखकर कहने लगा- इस बारे में बाद में बात करेंगे। आज का समय हो गया है। मैं जा रहा हूँ।
                कहकर वह बाहर आ गया। इसी दौरान वह कितना चालाक हो गया था, देखो। गांव का वही सरल और दुनिया नहीं देखने वाला प्रद्युम्न और नहीं था। इस शराबी आदमी से किस तरह किनारा करके वह आ गया, यह क्या संभव हो सकता था पुरी या साक्षी गोपाल या गांव में ? शायद, नहीं हो सकता था। प्रद्युम्न इस कोलियरी में आने के बाद बहुत चालाक हो गया था। ऐसी चिकनी-चुपड़ी बातों में वह नहीं फंस पाता। जनता को किताबों में जितना सरल और अमायिक लिखा हुआ क्यों न हो, वह जानता है, जनता ऐसी नहीं है। बहुत ही धूर्त और स्वार्थी। यही जो आदमी इतनी सहानुभूति-पूर्वक बात कर रहा था, शराब पीने के बाद भी वह क्यों स्ट्राइक भंग के काम में योग नहीं दे रहा है, अगर ध्रुव खटुआ को इतना नापसंद करता और हरिशंकर  पटनायक को प्रिय नेता मानता तो ? प्रद्युम्न सभी लोगों की नस-नस जानता है। कोई भी आदमी साला अच्छा नहीं है।
                प्रद्युम्न ने होटल से बाहर निकलकर रास्ते पर चलना शुरु किया। उसके चारों तरफ जैसे कोलियरी,पारबाहार कॉलोनी और उसके गंदे, असज्जित लोग नहीं थे। उसके अंदर से दूर जाते हुए ज्वर की अनुभूति में, खराब देह के वलय के भीतर डूबता जा रहा था वह। उसके नाक से गरम हवा निकल रही थी। आंखें छलकती जा रही थी जैसे किसी भी समय आंसू बरस जाएंगे। उसे सिर उठाने में कष्ट हो रहा था। पांव डगमगा रहे थे। 
                वह अगणी काका के घर की तरफ बढ़ने लगा। उसका सबसे असहाय सुरक्षित वही ऐस्बेस्टॉस छत वाला छोटा खपरैल घर, उस घर में रहने वाले लोग जैसे किसी दूसरे ग्रह के मनुष्य हो, बहुत अपरिचित। उनके साथ बिलकुल भी उसकी खांप नहीं खाती थी। फिर भी वे लोग ही उसका परिवेश, उसका आज का जीवन-यापन, वे ही लोग है समारु खड़िया का आकाश, मिट्टी, पानी और पवन।
                अगणी काका के घर पहुंचने के समय प्रद्युम्न सिर ऊपर नहीं उठा पा रहा था। कौन उस समय उसको देता एक खाट। रजाई ओढ़ते ही वह पहुंच जाता कहां से कहां। शायद विराट मकान के कोरीडोर में। शायद समुद्र किनारे, दूदूवाला की धर्मशाला के छत पर, या मीनाक्षी की गोदी में। वह शायद आंखें बंद करके उड़ जाता महाकाश को, अपने दोनों पंख फैलाकर या फिर डूबता जाता अथाह पानी के भीतर पंक लेने के लिए, बूढ़ी राक्षसी के मृत्यु पर वह सोते-सोते सुनता पिताजी का भागवत पाठ, बहिनों की टी.वी. सीरियल की चर्चा, शायद अनुभव करता अपनी पीठ पर मां का कोमल स्पर्श, “बेटा उठ, खाना खा ले।
                अगणी काका के घर हरिशंकर बाबू बैठे हुए थे चुपचाप। अगणी काका भी गंभीर। घर में काकी सोनू को मार रही थी, जिससे वह रो रहा था गद्दे की तरह। काकी शायद चिढ़ गई थी हरिशंकर की उपस्थिति से। सोने के कमरे की तरफ देखा प्रद्युम्न ने। दोनों रुनु, झुनु सोई हुई थी आकाश की तरफ मुंह किए चुपचाप।
                हरिशंकर ने कहा, “तुम्हारा घाव सूख गया है, प्रद्युम्न ?”
                प्रद्युम्न की बात करने की इच्छा नहीं थी। शायद उसका कहना उचित था घाव को देखकर अस्पताल की नर्स द्वारा दिया गया मंतव्य, घाव का वर्णन, सेप्टिक हुए दोनों स्टिच या उसके शरीर में बुखार चढ़ने की बात करना उचित था। मगर वह कुछ नहीं कह पाया, नहीं कह पाया। ऐसा ही है प्रद्युम्न। बहुत ही अनस्मार्ट। उसका और दूसरे प्रकार का होना शायद उचित था। उसके बाद शायद वह समारु खड़िया न होकर असली प्रद्युम्न हो पाता।
                हरिशंकर बाबू कहने लगे, देखो, प्रद्युम्न, तीन दिन हो गए ध्रुव खटुआ दल की स्ट्राइक को। यह है हमारे पास एक चैलेंज। हमें जैसे भी हो खदान चालू करनी पड़ेगी। यह हमारे लिए लड़ाई का समय है। प्रद्युम्न, जैसे भी हो हमें यह लड़ाई जीतनी पड़ेगी। हमने निर्णय लिया है, आज से हम जबरदस्ती खदान में नीचे जाएंगे। पहला जो भी दल जाएगा, उसमें तुम भी जाओगे।
मैं ?’ सिहर उठा था प्रद्युम्न। उसे बुखार आया है, पहले से ही कह देना था शायद। अब कहने से ये लोग सोचेंगे कि वह डर के मारे बहाना कर रहा है। फिर भी उसने कहा- मुझे बुखार हो गया है। दो स्टिच पक गए हैं।
                अगणी काका चिढ़कर कहने लगे- आः, ये सब बहाने छोड़ो। तुम क्या भीतर काम करने के लिए जा रहे हो जाओगे केवल हाजरी लगाने के लिए।
                आंखे छलक उठी प्रद्युम्न की। उसे वास्तव में बहुत कष्ट लग रहा था। क्या वह अपनी अस्वस्थता अपनी असहायता को किसी को कम्युनिकेट नहीं कर पा रहा है? या वे सभी भी अपनी अपनी बातों में इतने-इतने व्यस्त हैं, अपनी बात कहने पर भी उसकी तरफ ध्यान देने की फुर्सत नहीं ? कुछ भी नहीं कह पाया प्रद्युम्न। वह यूनियन में क्यों मिला था, उसे खुद पता नहीं। उसे पता है, यूनियन एक गोष्ठी है। यहां किसी आदमी की व्यक्तिगत समस्या की अपेक्षा गोष्ठी का हित ही ज्यादा देखा जाता है। गण के लिए अपनी आत्मबलि भी श्रेयस्कर है। तब, गोष्ठी किसी आदमी के लिए काम नहीं करेगी ? नेताओं की महत्त्वाकांक्षाओं के लिए गोष्ठी का व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए। और इस गोष्ठी को अलग समझ रहा था प्रद्युम्न, कुछ समय पहले तो वह भी सोच रहा था कि सभी तो अपनी-अपनी परिधियों में आबद्ध रहने के कारण उसके दुख दर्द को हृदयंगम नहीं कर पा रहे थे, वही प्रद्युम्न क्या गोष्ठी से अलग होकर अपनी परिधि में सीमाबद्ध हो नहीं हो जाएगा ? प्रद्युम्न का सिर चकराने लगा। इतना सोचना ठीक नहीं है। इस धरती पर जीवन जीना शायद इतना जटिल नहीं है। हम उसे बारम्बार अलग-अलग दृष्टिकोण से उलटकर देखने से धागे को उलझा देते हैं।
                अगणी काका ने कहा- चलो, मेरे साथ हॉस्पिटल। डॉक्टर बाबू को कहकर तुम्हारा फिट' करवा लाता हूँ।तीन दिन हो गए स्ट्राइक हुए पारबाहार कोलियरी में, फिर भी न किसी अखबार में, न रेडियों की स्थानीय खबरों में या टी.वी. की अखिल भारतीय समाचारों में जरा भी उल्लेख देखने को नहीं मिल रहा था। यह सब सोचकर प्रद्युम्न बहुत हताशा अनुभव कर रहा था। वह कैसे फालतू राज्य में आकर पहुंच गया है। चारों ओर की दुनिया से दूर निर्वासन में, सारी पृथ्वी से अलग निकट देशीय तरीके जो कितनी छोटी और उपेक्षित जगह हैं यह पारबाहार कोलियरी दुनिया में, भारतवर्ष में और यहां तक कि ओड़िशा में भी। वहां उल्लेखहीन तरीके से रह रहा था प्रद्युम्न मिश्रा, जिसने अपना आत्म-परिचय खो दिया हो। कितना छोटा और गुरुत्वहीन दुख है यह दूसरों के लिए ! यहां तक कि हरिशंकर बाबू और अगणी काका के पास भी इस दुख का क्या मायने है, समझ नहीं पा रहा था प्रद्युम्न। वे लोग सोचते हैं, प्रद्युम्न को खिलौने जैसी एक बंदूक की तरह। ट्रिगर दबाते ही गोली मारना शुरु कर देगी। उसका अपना कोई निर्धारित लक्ष्य नहीं हो सकता है, अपनी अभिरुचि या इच्छा अनिच्छा नहीं हो सकती है।
                प्रद्युम्न के पिट पर जाते समय उसके शरीर का दर्द बहुत कम हो गया था। ज्वर उतर गया था। मगर काफी कमजोरी लग रही थी उसे। पूरा शरीर मानो कांप रहा हो। दीर्घ पन्द्रह-बीस दिन हो गए थे उसे ड्यूटी गए हुए। अब तो खदान में उतरने में भी डर लग रहा था। खदान में एक बार उतरने के बाद, ऊपर उठते समय दोनों जांघें दर्द करती थी। पिट-हेड से अगणी काका के घर में आने के लिए बहुत कष्ट हो रहा था। पहले-पहल गहरी नींद में सो जाता था, ड्यूटी से लौटकर प्रद्युम्न। आठ, नौ, दस घंटे सोने के बाद भी उसकी आंखों में नींद पूरी नहीं हो रही थी। दिन के समय खटिया बिछाकर मुर्दे की तरह सोते रहना काकी को पसंद नहीं था। गुस्सा होने लगती थी। सभी जानते थे प्रद्युम्न नींद से नहीं उठ पाएगा ओढ़कर पड़ा रहेगा वह। धीरे-धीरे ठीक समय पर उठने का उसका अभ्यास होने लगा, उतनी थकान भी नहीं लगती थी। आज पिट हेड पर आने से पहले उसे ये सारी बातें याद आने लगी। मन में आ रहा था, उसकी जान निकल जाएगी। एक बार खदान के अंदर घुस जाने के बाद, ऊपर उठने की ताकत भी नहीं बचेगी उसमें। किसी तरह अगर ऊपर आ भी गया तो अगणी काका के घर को नहीं जा पाएगा।
                एम.टी.के. ऑफिस में केवल क्लर्क लोग ही थे। लैंप-केबिन में कोई भी नहीं था। चहल-पहल से भरा हुआ यह पिट हेड ऑफिस किस तरह खाली-खाली लग रहा था। केवल बैटरियां चार्ज हो रही थी। कन्वेयर बेल्ट नहीं चल रहा था। कोयले से भरे ट्रक नहीं दौड़ रहे थे। हेलमेट, झोड़ी, बेलचा, काले बेल्ट इधर-उधर नहीं हो रहे थे। केवल तीन-चार आदमी, जिन्हें अगणी काका लेकर आए थे, जिनके साथ प्रद्युम्न भी था, खड़े हुए थे, एम.टी.के के सामने। एक क्लर्क ने लैंप केबिन से लाइट लाकर टेबल पर रखते हुए कहने लगा- इन तीन-चार आदमियों से क्या होगा ? लोड़र चाहिए। रेजिंग चाहिए, रेजिंग समझे। प्रोडेक्शन।
                अगणी काका ने विरक्त होकर कहा- इनकी एटेंडेंस लिखो, खाली बकवास नहीं।
                प्रद्युम्न ने सोचा था, ध्रुव खटुआ के आदमी निश्चय पिट-हेड़ पर पिकेटिंग करेंगे और उन्हें खदान के भीतर नहीं जाने देंगे। एक बड़े झमेले से दो-दो हाथ करने के लिए तैयार होकर आया था प्रद्युम्न। मगर यहां आकर उसने देखा, पिकेटिंग तो दूर की बात, कहीं कोई नजर नहीं आ रहा था। दीवारों पर किसी प्रकार के नारें नहीं लिखे हुए थे। अगणी काका कहने लगे, “मैनेजमेंट से एक गलती हुई है सात दिन की तनख्वाह काटने का नोटिस देकर। जो एक दिन नहीं आ पाया, उसकी भी सात दिन की तनख्वाह काटने से और नहीं आएगा वह। आठवें दिन निश्चय ही काम पर आएगा।”
                अगणी काका उनकी हाजरी लिखवाने चले गए, और कोई अगर मिल जाएगा तो उसे लाने के लिए। प्रद्युम्न को ये सारे काम बच्चों के खेल जैसे लग रहे थे। जबकि इन सभी को कितनी बड़ी-बड़ी संज्ञाओं से पुकारा जाता है। आदर्शवाद के साथ इन सभी को जोड़ा जाता है। बचपने की तरह घटने वाली इन सारी आपातकालीन घटनाओं का गूढ़ अर्थ निकाला जाता है बाहर में। मगर वास्तव में ये सब तात्पर्यहीन और अति-गुरुत्वहीन विषय है। धरती पर जितनी सीरियस दार्शनिक शब्दावलियाँ है, उनके पीछे क्या तात्पर्यहीन परिणाम ही रहते हैं ? फिर हमारा जीवन हमारी सांप्रतिकता, हमारा परिवेश - के बारे में प्रचलित विचारधाराओं से भी बढ़कर है कोई अलग विषय ? ज्ञान से, पाठ से, शब्दों से, भाषा से, अभिव्यक्ति से पूरी तरह अलग विषय ?
                प्रद्युम्न की ये सारी बातें सोचने से उसका सिर गोल-गोल घूमने लगता है। यह जैसे उलझे हुए धागों को सुलझाने जैसा काम है। कहाँ से शुरू करे, कहाँ से फंसाए, कहाँ की गांठ खोले, कहाँ से एँठन खोले। उसे कुछ समझ में नहीं आता था। प्रद्युम्न कभी भी किसी स्थिर सिद्धांत पर नहीं पहुंच पाया। कभी भी किसी विषय को ध्रुव सत्य समझकर नहीं मान पाया। हर समय वह संधिहीन। उसका हर कदम कंपायमान, कमजोर और आशंका-ग्रस्त। उसका हर शब्द कांपलेक्स सहित भीरु और आत्मविश्वास-हित।
                क्लर्क के पास बत्ती के नंबर लिखवाकर बैटरी कमर में टांग दी प्रद्युम्न ने। बत्ती को हेलमेट में लगा लिया। उनमें से किसी ने पूछा, “हम क्या नीचे जाएंगे ?”
                क्लर्क रजिस्टर में अपना चेहरा गाड़े हुए था। कहने लगा, “कैंटीन बंद है। कोई भी नहीं आया है।
                “हम भीतर जाकर क्या करेंगे ? लोड़र तो नहीं है।
                रजिस्टर में लिख रहे क्लर्क ने अपना चेहरा ऊपर उठाते हुए कशमशाते हुए कहा, “मुझे क्यों पूछ रहे हो ? अपने मैनेजर से पूछो। अपने ओवरमेन, माइनिंग सरदार को पूछो। जो नेता तुम्हें यहां लाकर छोड़ गए हैं उनसे पूछो।
                प्रद्युम्न वहाँ से हट गया। कुछ समय लैंप कैबिन में घूमता रहा इधर-उधर। चार्ज होने वाले लैंपों के नंबर पढ़ने लगा। मैनजर के ऑफिस की तरफ जाकर झांककर देखा, वे सब लोग बैठकर ताश खेल रहे थे। उसे पता नहीं था, उसे कहां जाना है। वह तो बदली लोड़र था। पहले टब-चेकर में जाता था। अब उसे लोडिंग में भेजने की बात हुई थी। क्या आज उसे गाड़ी भरनी पड़ेगी ?
                “अपना चेहेरा तो देखो। जैसे मार खाकर आए हो ? आह, कितना कट गया है, कितने स्टिच आए थे? परमानेंट दाग रह गया चेहरे पर, है ना ?”
                पीठ पर हाथ रखने वाले आदमी को प्रद्युम्न ने घूमकर देखा था, एक माइनिंग सरदार था। क्या नाम उसका, मिश्रा या पंडा था नायक या दास ? याद नहीं कर पा रहा था वह। बहुत बार देखा था उसे। उसकी रिले में नहीं है वह। कभी भी उसके साथ बातचीत नहीं हुई थी। उस माइनिंग सरदार ने कहा, “चलो, नीचे जाएंगे। नीचे एक बार घूमकर आने से काम खत्म।
                प्रद्युम्न बिना कुछ बोले माइनिंग सरदार के पीछे चलने लगा। खदान के अंदर का रास्ता ठीक गुफा की तरह होता है। एक विराट गर्त, भीतर में सभी जगह जहां सीढ़ियाँ लगी हुई है। गर्त के मुंहाने पर माँ काली की तस्वीर टंगी हुई है। यह एक परंपरा है कोयला खदानों की। भीतर जाने से पहले सभी माँ काली के फोटो के सामने सिर नवाते थे। पहले-पहले भय लगता था प्रद्युम्न को। पहले दिन तो पांव कांप हे थे। हर समय मन में आता था, जैसे कि छत गिर जाएगी, जैसे कि अंधेरे में चलती हुई ट्रालियों के साथ टक्कर हो जाएगी। मृत्यु तो क्या है, कितनी भयानक है और जीवन से कितना प्यार है उसे, पहली बार खदान में उतरते समय उसने अनुभव किया था। धीरे-धीरे सारी अनुभूतियां अभ्यस्त होने लगी। खदान अंदर से लगता सरफेस की तरह कहीं पर भी अप्राकृतिक चीज नजर नहीं आती है। मगर आज इतने दिनों के बाद, गुफा के भीतर सीढ़ी से उतरते समय फिर एक बार डर लगने लगा था प्रद्युम्न को। भीतर घुप्प अंधेरा। हेलमेट में लगी हुई लाइट भी सक्षम नहीं थी इस अंधेरे को मिटाने के लिए। इतना बड़ा अंडरग्राउंड शायद और कहीं नहीं होगा। प्रद्युम्न के रोंगटे खड़े हो गए।
                सामने से आने वाले माइनिंग सरदार ने कहा, “तुम्हारे साथ बातचीत करने का मौका नहीं मिला था। अब बड़ा हीरो बन गया है। कोलियरी के सारे आदमी तुम्हें जान गए हैं, ऑफिसर से लेकर लोडर तक।
                उस आदमी की आवाज की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ रही थी उसे। पहले काम करते समय अंडरग्राउंड में उसने कभी भी प्रतिध्वनि नहीं सुनी थी।
                माइनिंग सरदार ने उसे कहा, “तुम्हारे जैसा लड़का यूनियन में शामिल क्यों हुआ ?” यूनियन तो टाऊटर लोगों का काम है। अगर सच कहूं तो ऐसे राजनैतिक नेताओं ने यूनियन को बदनाम कर दिया है। अच्छा, जरा सोचो तो इतने सालों में कितना कुछ बदल गया। रूस और चीन में वामपंथी विचारधारा किस तरह खत्म होती जा रही है। मुझे बहुत लगता है जब एक विचारधारा इस तरह नष्ट हो जाती है। मैं कम्यूनिस्ट नहीं हूँ। फिर भी कम्यूनिज्म की मृत्यु मुझे शोकाभिभूत करती है।”
                प्रद्युम्न भी कम्यूनिस्ट नहीं था। कम्यूनिजम के बारे में ज्यादा सोचता नहीं था वह। मार्क्सिज़्म, पेरेस्ट्रोइका, गैंग ऑफ फॉर, स्टालिन, बाकूनिन, कल्चरल रिवोल्यूशन, मार्कूइन - इन सभी के बारे में उसे जानकारी नहीं थी, ऐसी बात नहीं थी। मगर इन सारी बातों पर उसने कभी भी अपना दिमाग नहीं खपाया। कम्यूनिज्म की मौत से उसका मन कभी भी दुखी नहीं हुआ।
                ट्रेड यूनियन के साथ मार्क्सिज़्म अथवा सर्वहरा जैसे नायक तंत्रों को एक साथ सोच सकते हो। मेरे ख्याल से ये दोनों इंकांपिटिबल हैं। इकांपिटिबल का अर्थ जानते हो ?
                सिर हिलाकर मना किया प्रद्युम्न ने। यह माइनिंग सरदार कितना पढ़ा लिखा होगा ? माइनिंग स्कूल से डिप्लोमा पास नहीं किया होगा शायद। अगर किया होता तो ओवरमेन बन गया होता। यह आदमी शायद बदली लोडर में भर्ती हुआ होगा। उसके बाद गैस टेस्टिंग परीक्षा पास फर्स्ट-एड सर्टीफिकेट जमा कराने के बाद माइनिंग सरदार की परीक्षा पास की होगी। इस आदमी को इतनी जानकारी कैसे है ? प्रद्युम्न के मन में है, कोलियरी मूर्ख लोगों का साम्राज्य है। यहाँ अनेक  डिप्लोमा और ग्रेजुएट टेक्नीकल लोग होंगे, मगर वास्तव में उनमें बुद्धि नहीं है। कोयला खदान, रेजिंग, प्रॉडक्शन, ब्रेक-डाउन अथवा पार्टी, जुआ, शराब-सेवन छोड़कर एक्जिक्यूटिव हो या, स्टॉफ हो या लेबर हो- किसी को कुछ मालूम नहीं। जितना इस सामान्य माइनिंग सरदार को पता है।
                इनकांपिटिबल मतलब तुम्हें कैसे समझाऊँ, जैसे सूरज और चांद परस्पर इनकांपिटिबल- अर्थात ये दोनों एक साथ नहीं रह सकते, वैसे ही मार्क्सिज़्म के साथ ट्रेड-यूनियन का कोई संबंध नहीं रह सकता। ट्रेड-यूनियन हमेशा मध्यममार्गी होता है। मैनेजमेंट के शोषण से श्रमिकों की रक्षा के नाम से साधारण सुख-सुविधाओं को पाने की कोशिश करता है। फलतः श्रमिक धीरे-धीरे सुविधावादी होता जाता है। संघर्ष करने, शोषण के विरुद्ध प्रतिवाद करने जैसे नारें- ये सारी बातें लोगों को भूल-भुलैया में डालने जैसी होती है। ट्रेड यूनियन कभी भी मैनेजमेंट से हक छीनना नहीं चाहता है। बल्कि मैनेजमेंट के खिलाफ श्रमिकों के असंतोष को दबाकर रखने में सहायता करता है ट्रेड यूनियन। कभी सोचा है तुमने इस बारे में ?
                चारों तरफ अंधेरा। दूर  में कहीं बीस वाट की टयूबलाइट झिम-झिम करते हुए जल रही थी। हेलमेट के ऊपर लगी हुई लाइट की रोशनी में भी सामने खड़े माइनिंग सरदार का चेहरा नजर नहीं आ रहा था। सब भूतों की तरह दिखाई पड़ रहे थे प्रद्युम्न को। सच में, क्या यह आदमी कोलियरी का है ? या ये सब आलौकिक हैं ? या हेल्यूसिनेशन ? ऐसा क्या होता है ?
                “आओ, हम दूसरे सेक्शन में घुमकर आते हैं। काम तो कुछ नहीं है, केवल इंसपेक्शन कर आते हैं।माइनिंग सरदार ने पीछे मुड़कर, प्रद्युम्न का हाथ पकड़कर कहने लगा, “तुम्हारा शरीर तो बहुत गरम है। इतने तेज बुखार में नीचे क्यों आया ? ठीक है बैठो, बैठो। तुम यहीं बैठे रहो। मैं ऊपरी सेक्शन से घूमकर आता हूं।
                माइनिंग सरदार उसे छोड़कर सीढ़ी चढ़कर ऊपरी सेक्शन में चला गया। इतनी बड़ी खदान के अंधेरे में बैठा रहा प्रद्युम्न। वह सपना देख रहा है ? चारों तरफ अंधेरा। दूर से सायं-सायं की आवाज आ रही थी। माइनिंग सरदार जब था, सुनाई नहीं पड़ रही थी वह आवाज। अब वह सुन पा रहा था वह तेज आवाज। पहले-पहल तो वह घबरा गया था, बाद में उसे याद आया, शायद वह फैन हाउस का आउट-लेट का रास्ता था। अंदर की हवा फैन-हाउस के रास्ते बाहर निकाली जा रही है। प्रद्युम्न जब गांव में था तो वह डरपोक के नाम से बदनाम था। अंधेरे में जाने के लिए वह डरता था। यहां तक अकेले घर में वह सो नहीं पाता था। मगर अब वह इस अंडरग्राउंड में अकेले ? ऊपरी सेक्शन में गया हुआ माइनिंग सरदार कोई मनुष्य है ?यहाँ से चिल्लाने की आवाज वह सुन सकेगा ? या वह एक आत्मा है, जिसने उसे बहला-फुसलाकर बुलाया है।
                भूत-प्रेत है या नहीं, प्रद्युम्न ने कभी इस बारे में सोचा तक नहीं था। दुनिया के बहुत सारी चीजों के बारे में उसने सोचा नहीं था।
                बहुत सारी चीजों की उसे जानकारी नहीं थी। फिर भी अंधेरे से डरता था। उसे लग रहा था जैसे कोई उसके चारों तरफ घूम रहा हो। कभी-कभी उसे लग रहा था, अंधेरे में एक भयानक चेहेरा उसे घूर रहा हो। उसे डरा रहा हो। क्या वह भूत तो नहीं है ? या उसके मानसिक स्तर की कोई प्रतिक्रिया तो नहीं ?
                चारों तरफ अंधेरा। प्रागैतिहासिक अंधेरा। कितने वर्ष पहले, कितने लाखों साल पहले यहां था कोई प्राणी-जगत, यहां रही होगी मिट्टी, आकाश, पानी, पवन, पेड़-पौधों और लताओं से भरे जंगल। यहां बचा रहा होगा जीवन आज इतने युगों के बाद, मिट्टी के नीचे, प्रद्युम्न का उनके साथ साक्षात। जैसे कि कोई बाहर निकल रहा हो दीवार फाड़कर, अंधेरे में, कोयले के अंदर से और हंस रहा हो पैशाचिक हंसी।
                उसका शरीर कांपने लगा। भय का कोई कारण था ? कारण नहीं होने पर भी, सब-कुछ जानने पर भी  उसे भय लग रहा था। कनपटी के पास धमनी-शिराएं खींच गई थीं उसकी। इच्छा होने लगी उसकी, तांडव नृत्य करने की। इच्छा होने लगी उसकी, वह दांत दिखाकर, आंखें बड़ी-बड़ी कर वीभत्स तरीके से किसी को डराएगा। वह भूत, वह आत्मा, वह प्रद्युम्न नहीं। वह समारू खड़िया नहीं। वह एक अलग शक्ति है। वह ध्वंस कर देगी। वह मारकर खा जाएगा। जो लोग उसके विरुद्ध में, जो लोग उसके अस्तित्व को पोंछेने  के लिए आए हैं- उन लोगों का रक्त-मांस, हड्डी, मज्जा चबाकर, चूसकर गटककर टुकड़े-टुकड़े करके नष्ट कर देगा।
                भयंकर तरीके से चिल्लाया प्रद्युम्न। कूद पड़ा हो जैसे रण-भेरी में। आंख, नाक, कान - सभी हो गए उसके अप्राकृतिक और भयावह। निकलने लगे हो नाखून और दांत। वह क्या नृसिंह अवतार बन गया है ? वह क्या पिशाच ? प्रद्युम्न का शरीर कांप रहा था। सांस लेने में कठिनाई हो रही थी। उसके चारों ओर धीरे-धीरे अंधेरा छाने लगा।
                होश आने पर प्रद्युम्न ने देखा, वह सरफेस पर है। फर्श पर सोया हुआ था। उसके ऊपर दो-तीन आदमी झुककर बैठे हुए थे। किसी एक आदमी ने उसके चेहरे पर पानी की छींटे मारे।कान के भीतर पानी घुसने पर उसे झमझम लगने लगा। वह उठकर बैठने की कोशिश करते समय माइनिंग सरदार ने उसे जबरदस्ती सुला दिया और कहने लगा, “सो जाओ, सो जाओ। डरने की कोई बात नहीं है। तुम अंडरग्राउंड में बेहोश हो गए थे। तुम्हें ऐसी बीमारी थी ? पहले कभी बेहोश हुए थे ? इतने बुखार में क्यों नीचे उतरा ? क्यों इधर भीड़ जमाकर रखे हो ? हवा आने के लिए रास्ता छोड़ो।
                प्रद्युम्न को संकोच लगने लगा। इतने लोगों के सामने, और वह बेहोश हो गया था। उसका मन हो रहा था वहां से उठकर भाग जाने के लिए। उसके शरीर में क्या अभी भी बुखार है ? वह कहने लगा- मैं उठूंगा। मुझे अब अच्छा लग रहा है।
                तुमने डॉक्टर को दिखाया बुखार के लिए ?अभी डॉक्टर-खाना जाना चाहोगे ?
                प्रद्युम्न उठकर बैठ गया। उसके चारों तरफ भीड़ जम गई थी। अधिकांश लोग शायद माइनिंग स्टॉफ या माइन्स टाइम कीपर या अंडर-मैनेजर थे। उस भीड़ के उस तरफ से दिखाई पड़ रहा था पिट-हेड़ का आकाश। शाम होने लगी थी, बल्ब जलने लगे थे हर ऑफिस रुम से। कितना समय हुआ होगा ? कुछ लोग बतिया रहे थे, स्ट्राइक टूट गई। ध्रुव खटुआ और देशमुख साहब के बीच में राजीनामा हो गया है। आज रात पाली से काम शुरु हो जाएगा।
                “सच में स्ट्राइक टूट गई ? प्रद्युम्न किसको पूछेगा ? किस उद्देश्य से ?” प्रद्युम्न के प्रश्न का जरा-सा उत्तर किसी भी आदमी ने नहीं दिया।








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