सप्तम परिच्छेद
सप्तम परिच्छेद
ऑफिस
में देशमुख का कोई खास काम ही था। उसके हाथ में कोई पॉवर नहीं था ।
यहां तक कि किसी को छुट्टी देना, किसी
को दिक्कत होने पर जीप देने की भी ताकत नहीं थी उसकी। जबकि इस यूनिट के प्रॉडक्शन
के लिए वह पूरी तरह दायी था। उसका कोई कण्ट्रोल नहीं था माइंस में। प्रोजेक्ट
ऑफिसर का ही वहां राज चलता था।
माइनिंग सरदार,ओवरमेन
लोग भी उसका सम्मान नहीं करते थे। अंडरमैनेजर लोग भी उसे देख कर विश नहीं करते थे।
प्रॉडक्शन कैसे बढ़ेगा, इस विषय में वे लोग उसकी राय भी नहीं लेते थे। बल्कि
हर बार कोयले की खदान से कम रेजिंग होने की बात को लेकर आश्चर्य प्रकट करते हुए
प्रोजेक्ट ऑफिसर देशमुख को ही दोषी ठहराते थे।
देशमुख
ने घंटी बजाई। पियोन भी नहीं आया। वह जानता है, पियोन
नहीं आएगा। उसे पता है, उसका स्टेनो भी और किसी का जॉब टाइप कर रहा होगा।
स्टेनो को बुलाने पर भी वह यह कह कर टाल जाएगा कि वह डिप्टी सी.एम.ई. का अर्जेन्ट
काम कर रहा है। वह कठपुतली की तरह ऑफिस में बैठने के लिए बाध्य था। ऑफिस छोड़ कर
जाने से उसे प्रोजेक्ट ऑफिसर को जवाब भी देना पड़ेगा, “अगर
आप इस तरह फांकी मारोगे, तो कोलियरी के दूसरे लोग क्या सिंसयरटी से काम करेंगे
मि.देशमुख?”
देशमुख
जितना हो सकता है, एडजस्ट
करना चाह रहा था इस पद के लिए। मगर नहीं कर पा रहा था। कहीं से विद्रोह के स्वर उठ
रहे थे उसके भीतर। वरन ऑफिसर होना ही असहायता को बुलाना है। आप विद्रोह नहीं कर
पाओगे और न ही किसी भी प्रकार का प्रतिवाद।
आप
अगर क्लर्क होते या फिर मजदूर होते तो आपकी रेसपांसिबिलिटी भी बहुत कम होती। आप
अपने ऊपर वाले के आदेश को नजरअंदाज कर देते, आप
अपने ऊपरवाले को गाली-गलौज या डरा-धमका भी सकते थे, आपका
मन काम करने का नहीं होने पर, आप केजुअल लीव
और सिक लीव भी ले सकते हो। आप ठीक समय पूरा होते ही जा भी सकते हो। मगर
ऑफिसर बनने के बाद आप को अपने ऊपर वालों के सामने आज्ञाकारी अनुचर बनकर रहना
पड़ेगा। अपने आपको साबित करना पड़ेगा कि आप एक दायित्व सम्पन्न ऑफिसर हो और इसके
लिए आपका व्यक्तिगत अथवा पारिवारिक जीवन कुछ भी मायने नहीं रखता है। जब तक आपका
ऊपर वाला घर नहीं जाएगा, तब तक आप अपने घर नहीं जा सकते हो। आपके ऊपर वाला भले
ही मूर्ख क्यों न हो, अगर
वह आपके विज्ञतापूर्ण काम पर असंतोष व्यक्त करता है तो आपको मान लेना पड़ेगा, वास्तव
में जैसे वह ही सब कुछ जानता है और आपको कुछ भी मालूम नहीं है।
देशमुख
का बहुत पुराना सपना था, ऑफिसर बनने का। देशमुख का ही सपना नहीं था, सपना
देखना आरंभ किया ता देशमुख की मां ने भी। देशमुख की मां, जिसे
लोग ‘आई’ के नाम
से पुकारते थे, विधवा
हो गई थी जब देशमुख दस साल का था। देशमुख का जन्म हुआ था एक रक्षणशील परिवार में।
जहाँ किसी औरत के विधवा होने पर सिर मुंडन करवाना पड़ता था। देशमुख को वह दिन आज
भी याद है। पिताजी की शुद्धि-क्रिया बची हुई थी। सभी का मन शोकाकुल था। देशमुख खुद
अपने सीने के भीतर खालीपन अनुभव कर रहा था। मृत्यु के साथ यह था उसका पहला
साक्षात्कार। वह भी उसके अति प्रियजन की मृत्यु। उस समय गंडगोल हुआ था। बाहर किसी अति निर्जन जगह में खड़ा होकर
देशमुख उस समय अपने पिता की स्मृति, अस्तित्व और अभाव-बोध के साथ अपने आप को जोड़ना चाह
रहा था- इसी गंडगोल की आवाज सुनकर वह दौड़ पड़ा आंगन की ओर। सभी घर में बैठे हुए
थे और माँ खड़ी थी खम्भे की आड़ में। उसके लंबे खुले बाल कमर तक आते थे, धोती
की तरह साड़ी पहने रखी थी माँ ने, आंखों में छलकते आंसू। उसको घेर कर बैठे हुए थे, दादी
मां, काका
लोग और ब्राह्मण-नाई।
दादी
ने उनका सिर मुंडन करवाने के लिए ओढ़ने को दबाकर सिर के ऊपर कपड़ा रखा था, पूछा-
मरे हुए तुम्हारे पति बड़े या तुम्हारे सिर के बाल बड़े? मां
ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया था। ब्राह्मण ने कहा-“यह तो
परंपरा है मां, ऐसा
करना पड़ता है। स्वर्ग में आपके पति को शांति मिलेगी।” माँ
ने फिर भी कुछ उत्तर दिया नहीं था। काका लोग कहने लगे-“भाभी, ये
हमारे वंश की मान-मर्यादा है। हमारे वंश की बहू होने के खातिर उसकी इज्जत भी करनी
पड़ेगी। अगर आप अपने सिर का मुंडन नहीं करवाओगी तो लोग क्या कहेंगे? मानते
हैं, आज-कल
फैशन के इस युग में बहुत सारी विधवाएं अपने सिर के बाल नहीं कटवाती है। मगर उनके
साथ हमारे वंश का क्या संबंध है? हमारे वंश का महान इतिहास, परंपरा
जानती हो न, हमारे
वंश के लोग शिवाजी की राजसभा में मन्त्री हुआ करते थे।” मां
फिर भी चुप। आंखों में लबालब आंसू। दादी ने एक बार गुस्से में कहा, जबरदस्ती
पकड़कर सिर मुंडन करवाने के लिए, मगर
मां की टेड़ी निगाहों को देखकर किसी का भी साहस नहीं हुआ आगे बढ़ने के लिए।
उस
समय भारत स्वतन्त्र हो गया था। फिर भी उस समय कुसंस्कारों के बंधन में जकड़े हुए
एक परिवार में लालन-पालन हुआ था देशमुख का और उस परिवेश में एक बड़ा ऑफिसर होगा
मेरा बेटा, का
सपना देखने वाली मां धन्यवाद की पात्र है उसके साहस और आकांक्षा के लिए।
सिर मुंडन
नहीं करवाने के कारण मां, घर में सभी के लिए अप्रिय पात्र बन गई थी। धीरे-धीरे
घर वालों ने उसे दूर कर दिया था और इसी बात को पकड़ कर देशमुख को बड़ा आदमी बनाने
का दृढ़ संकल्प ले लिया था मां ने, जिसके परिणामस्वरूप देशमुख आज महाराष्ट्र से हजारों
मील दूर ओड़िशा की इस पारवाहार
कोलियरी के इस ऑफिस चैंबर में बैठा हुआ है। क्या कहा जाएगा देशमुख की इस उपलब्धि
को? आरोहण
या अवरोहण? क्या मोनूमेंट बन
गया देशमुख इस तरह का ऑफिसर बन कर? अगर नहीं भी होता तो क्या नुकसान हो जाता? माँ
को केवल आत्म-संतुष्टि मिली होगी, बेटे को बड़ा ऑफिसर बनाकर सोचने से। मगर देशमुख क्या
कर पाया?
बहुत
कष्टों के साथ माँ ने मनुष्य बनाया था देशमुख को। स्वाधीनता के बाद, महात्मा
गांधी का किसी ब्राह्मण द्वारा मार दिए जाने की खबर मात्र से महाराष्ट्र में
ब्राह्मण विरोधी दंगे फैल गए थे। उन्हीं दंगों के कारण अधिकांश ब्राह्मण गांव छोड़
कर शहर आ गए थे। उनकी जमीन-जायदाद मराठों ने, नहीं
तो, हरिजनों
ने हड़प ली थी। उन ब्राह्मण परिवारों में से एक परिवार था देशमुख का भी। मराठवाड़ा
के एक छोटे सिविल टाउन ‘जालना’ में
देशमुख के पिताजी तथा चाचा लोगों ने कपड़े की दुकान खोली थी- उन दिनों में उन सभी
का एक संयुक्त परिवार था। बाहरी दुनिया की चकाचौंध प्रभावित नहीं कर पाई थी उस
परिवार को। घर के किसी कोने में पड़ी रहने वाली दादी ने बाहर का कभी उजाला भी नहीं
देखा था, वह थी
इस परिवार की मुखिया और उसके आज्ञाकारी पुत्रों में, किसी
में भी दादी के निर्देश काटने की ताकत नहीं थी।
उस
अंधेरे परिवार में देशमुख की मां थी शायद दीप-शिखा । उसे बुझाने के सहस्र प्रकार
के प्रयासों को विफल करने के बाद भी वह जल रही थे। सामंतवादी परिवार के रक्षणशीलता
के अंधकार को वह छोटी दीपशिखा कितना दूर तक हटा पाएगी, कहा
नहीं जा सकता, फिर
भी उस अठारहवीं-उन्नीसवीं शताब्दी के अंधेरे को बीसवीं शताब्दी के प्रकाश से भर
दिया था उसने-यह बात एकदम सत्य थी।
दुकान
की आय से कुछ भी नहीं मिलता। घर के भीतर एक बहुत ही छोटे (10 फुट x 6 फुट)कमरे
में सिर छिपाने को छोड़ और कोई अधिकार नहीं था मां को। ब्राह्मण परिवार की बहू बनी
मां को उतरना पड़ा रास्ते में, लोगों के घर काम करने के लिए। देशमुख की मां थी दादी
और काका लोगों के सामने वंश का कलंक। देशमुख ने अपनी छोटी उम्र में ही निर्मम भाव
से समझ लिया था जिंदगी के क्रूर सत्य को। समझ में आ गया था उसे पेट की भूख, मां
के आंसू, दादी
की डांट-फटकार, काका
लोगों की घृणा और आधी रात में मां के दीर्घश्वास को। इन सारी चीजों के कारण मां के
प्रति उसका प्यार बढ़ता चला गया था।
देशमुख
ने चारों तरफ देखा। लकड़ी का पार्टीशन देकर बनाया गया था उसका दरिद्रतम चेम्बर।
गोदरेज की टेबल-चेयर, टेलिफोन, एक
फाइल रैक। कूलर को छोड़कर ऑफिस रूम में और कुछ भी नहीं था। जबकि उसकी तुलना में
डिप्टी सी.एम.ई प्रोजेक्ट ऑफिसर का ऑफिस बहुत ही आभिजात्य सम्पन्न था। ऑफिस रूम
में बिछी हुई थी ईरानी कारपेट। सेक्रेटरी टेबल, दीवार
में किताबों की सुंदर रैक, ग्राफ और अब तक के प्रोजेक्ट ऑफिसरों की नामावली।
दीवार में लगा हुआ एअर-कूलर, ऑफिस रूम से जुड़ी हुई सुंदर लेबोरेटरी। प्रोजेक्ट
ऑफिसर के पास वाले रूम में उसके स्टेनो का ऑफिस-सामने हर समय पहरा देने वाला दरबान
और कॉलिंग बेल का इंतजार करता पियोन। प्रोजेक्ट ऑफिसर के सामने देशमुख की अफसरगिरी
उसे इतना म्रियमाण कर देती है, कि हर समय उसके भीतर एक हीन भावना कसोटने लगती है।
जैसे वह एक जंगली घासफूस हो, जो पैदा हो गई है किसी सुशोभित पार्क में। जैसे उसका
यहां रहना ही पारवाहार कोलियरी के लिए लज्जा का विषय है।
देशमुख
बाहर आ गया। अपनी जीप ऑफिस के सामने से ले सकते थे मि.देशमुख। इन छोटे लोगों के
सामने क्यों मुझे बदनाम कर रहे हो? आपको एक रेसपांसिबल ऑफिसर होना चाहिए मि.देशमुख। आपकी
ये हरकतें आपको किसी क्लर्क या लोड़र से ज्यादा ऊपर
नहीं उठा सकती।
देशमुख
खुलकर कुछ नहीं कह पा रहा था। वह एक सिन्सिअर ऑफिसर है। वह गाली सुनने के लिए
बाध्य है। उसकी मां ने उसे ऑफिसर बनाने के लिए इतनी कष्टदायी साधना की, इतनी
निर्यातना सहन की, क्या
इस खातिर कि वह अपनी अफसरीय मर्यादा की रक्षा के लिए केवल क्रीतदास बन कर गाली ही
सुनता जाएगा? क्या
उसकी मां कभी जान पाएगी, उसकी असहायता की यह कथा?
जानने
का कोई उपाय भी नहीं था उनके पास। देशमुख के परिवार में किसी ने नौकरी नहीं की थी.
जिसने भी की, वे
लोग मास्टर की नौकरी से और ऊपर नहीं उठ पाए थे। देशमुख ने अपनी नौकरी से पहले
मुम्बई शहर भी नहीं देखा था, फिर उसने नहीं देखा था लोन वाला का प्राकृतिक दृश्य
तो दूर की बात, सबसे
नजदीकी शहर औरंगाबाद भी नहीं देखा था उसने कॉलेज में जाने से पहले। कॉलेज में ही
पहली बार देखा देशमुख ने वृहत्तर दुनिया को। औरंगाबाद में लंबे दो साल रहने के
दौरान कभी भी नहीं देखी थी अजंता और एलोरा की गुफ़ाएं, बीबी
का मक़बरा और औरंगजेब की कब्र। बल्कि उसने ज्यादातर राजनीति में ही भाग लिया था।
पहले पहले वह घुस गया था शिव सेना में। महाराष्ट्र के एकीकरण और हिन्दू जाति के
भविष्य के संबंध में विभिन्न प्रकार की प्रचार-पुस्तिकाओं को पढ़ कर वह धीरे-धीरे
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधारा की ओर ज्यादा आकृष्ट हुआ था, वह
नियमित जाने लगा था प्रभात फेरी में भी। अखाड़े में जाकर लाठी चलाना भी सीखा था
उसने। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का जिस समय वह अंधा भक्त था, उस
समय दत्तात्रेय जोशी नामक एक आदमी ने उसे दलित पंथ की ओर आकर्षित किया था।
अध्यापक
जोशी ने उसे समझा दिया था कि महाराष्ट्र की राजनीति किस तरह अभी भी मराठों के हाथ
में है और सैंतालीस में ब्राह्मण विरोधी दंगों को माध्यम बनाकर मराठों
ने ब्राह्मणों का मेरुदंड तोड़ दिया था। अध्यापक जोशी ने उसे समझाया था, महाराष्ट्र
की राजनीति में अब दो मुख्य धाराएं हैं। एक मराठों की, दूसरी
हरिजनों की। ब्राह्मणों को सोचना होगा कि वे क्या करेंगे। क्या वे मराठों का साथ
देंगे? देने
पर सोचना होगा, उन्हें
क्या लाभ होगा? मराठे
उनके लिए कभी भी गद्दी नहीं छोड़ेंगे। उससे तो ज्यादा ठीक है दलित लोगों के साथ
रहना। दलित लोग अपनी संस्था और परंपरा के अनुरूप कभी ब्राह्मण लोगों को अतिक्रम
नहीं कर पाएंगे। दूसरी बात, हरिजनों
की विजन, उसकी ऑफिस की सम्पत्ति, प्रतिपत्ति
कहने का मतलब यह एक जीप ही है। यह भी उनके अख्तियार में नहीं रहेगी। कभी ड्राइवर
नहीं आएगा तो कभी जीप को दूसरे कामों में लगाया जा सकता है। देशमुख ने पूछा किसी
क्लर्क से अपनी जीप के बारे में। पूछने पर भी क्लर्क नहीं बताएगा, वह जानता था।
क्लर्क
के अपनी अनभिज्ञता जाहिर करते ही उत्तेजित हो गया था देशमुख। “तुम
क्या जानते हो? क्या? खाली
इधर-उधर घूमते हो, काम
छोड़ कर। जाओ, अपना
काम करो।”
हैरान हो
गया क्लर्क। शायद वह फांकी मार कर इधर-उधर
घूम रहा था, या फिर चाय-सिगरेट
के लिए इधर-उधर चला गया वह। देशमुख के डांटने पर कुछ भी नहीं कह
पाया, घबरा गया था वह।
देशमुख
लौट आया था अपने चैंबर में। क्या जरूरत थी इस तरह अन्यथा डांटने की क्लर्क को।
उसकी नौकरी की अवधि के भीतर किसी ने कहा था, वी
इंडियन्स बार्क एट रोंग प्लेस।
देशमुख
ने ऑटो सेक्शन में फोन करके पूछा था। उसकी जीप अंडर मैनेजर लोगों को पिट से लाने-ले जाने के काम में आ रही है। देशमुख का क्रोध देख कर
ऑटो सेक्शन के इंचार्ज ने कहा था-“और
कोई जीप नहीं थी सर। मिश्रा साहब ने कहा था...।”
मिश्रा
साहब। अमोघ अस्त्र था मिश्रा साहब का नाम। उस अस्त्र के सामने कायर की तरह, सरीसृप की तरह, पिघलती
बर्फ की तरह देशमुख अपना अस्तित्व खो बैठता था। और कुछ भी नहीं कह पाया देशमुख।
कुछ ज्यादा कहने पर हो सकता है, बात
प्रोजेक्ट ऑफिसर के कानों में चली जाए और दूसरे दिन मि.मिश्रा
उससे कहेंगे-“आपको अगर कुछ कहना ही था तो मुझे कहते।” सवर्ण
जाति विद्वेषी आक्रोश को मराठा विद्वेष में बदलने से ब्राह्मणों को फायदा ही
फायदा। अध्यापक जोशी के अनुसार आश्चर्यजनक भाषण और परिस्थिति जन्य फायदा उठाने का
अर्थ ही है राजनीति। इसी आदर्श से प्रभावित हो कर देशमुख शामिल हो गया था दलित पंथ
में और हरिजनों का बौद्ध होने की आवश्यकता, मराठा
सांप्रदायिकता बनाम शिवसेना या कम्यूनिस्ट और नव-बौद्धवाद
के ऊपर सारगर्भित समालोचना करने लगा था वह।
दलित
आंदोलन में भाग लेने के बाद ही सर्वहरा शोषण, बुर्जुआ
इत्यादि शब्दों के साथ उसका परिचय हुआ था और धीरे-धीरे
मार्क्सवाद की विचारधारा भी वह समझने लगा था। मार्क्सवाद स्वीकार करने से पूर्व ही
वह दलित पंथी जाति आश्रित राजनीति के प्रति वह वीत-स्पृह
हो गया था और नागपुर में इंजिनियरिंग पढ़ते समय ही उसने मार्क्स और ऐंजिल्स या
लेनिन को पढ़े बिना कम्यूनिज्म के ऊपर एक धारणा बना ली थी और स्टूडेंट फेडरेशन का
मेम्बर बन गया था वह। उसके बाद भी ऊपरी निगाहों से कुछ कुछ मार्क्सवाद पढ़ने की
चेष्टा कर उन सब को पढ़ना छोड़ दिया था, क्योंकि
उसके मन में एक धारणा बन गई थी कि उन सभी को नहीं पढ़ने पर भी कोई असुविधा नहीं
होगी। उसने “दास-कैपिटल” पूरी
पढ़ने के बाद किसी को भी कम्यूनिस्ट बनते नहीं देखा था। देशमुख के स्टूडेंट
फेडरेशन का मेम्बर होने से अब तक वह यही सोच रहा था कि जाति वंश से ऊपर उठ उसकी
मां एक सर्वहरा हो गई थी और उसने अपने शारीरिक परिश्रम से उसे मनुष्य बनाया था मां
के समस्त प्रकार के विद्रोह ने उसे कम्युनिस्टों की तरफ आकर्षित किया था और इस
प्रकार वह आर.एस.एस. से कम्यूनिस्ट बन गया था।
माइनिंग
इंजिनियरिंग पास करने के बाद जूनियर एग्जिक्यूटिव ट्रेनी के रूप में कोल इंडिया की
अनुषंगी कम्पनी इस्टर्न
कोल फील्ड लिमिटेड की एक खदान में पश्चिम बंगाल में नौकरी प्राप्त की थी
और वहीं पर कम्यूनिस्ट यूनियनों का कारोबार देख कर देशमुख की कम्यूनिज्म से
विश्वास उठ गया था। वह जान गया था, राजनीति
केवल स्वार्थ का खेल है और किसी दल, जाति
स्वार्थ से ऊपर उठकर व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के लिए ही राजनीति का सहारा
लेने की जरूरत पड़ती है। और उसी के साथ आते हैं कुछ आदर्श, थ्योरी
और हाइपोथेसिस का
छद्म आचरण। देशमुख को सारे राजनेताओं के चेहरे एक समान नजर आते हैं- भले ही वे आर.एस.एस. के हो
या कम्यूनिस्ट या फिर जनता दल या कांग्रेस- सभी
दल उसे एक जैसे ही लगते हैं।
मि.मिश्रा के रंग-ढंग से ऐसा लगता है, वह सोचता है कि देशमुख को कोई लेना-देना नहीं है पॉलिटिक्स से।
वह ट्रेड यूनियन के लीडरों को “टैकल” नहीं कर पाएगा। ट्रेड यूनियन वालों से दूर रहने का
परामर्श देता है देशमुख को हर समय और देशमुख को यूनियन के किसी आदमी के साथ बातचीत
करता देख कर उसे संदेह के घेरे में लेता है वह। मगर देशमुख जानता है, मि.मिश्रा
खोजता रहता है विभिन्न स्रोतों से । यूनियन
और देशमुख के बीच हुई बातचीत के बारे में, सारा
तकनीकी विवरण जानने के लिए उसने चारों
तरफ गुप्तचर रखें हैं ताकि
देशमुख
के क्रियाकलापों व गतिविधियों
के ऊपर तीक्ष्ण नजर रखी
जा सकें।
बीच-बीच
में मि.मिश्रा उसे चेतावनी भी देते हैं, आप यूनियन वालों को लिफ्ट नहीं देंगे, मिस्टर देशमुख। आपको पता नहीं है, साधारण पासों के खेल से महाभारत पैदा कर सकते हैं फिर ये तो यूनियन
वाले। आपकी कोई भी प्रतिश्रुति या
कोई भी चैलेंज इस यूनिट के श्रमिकों की शांति भंग कर सकता है। जो कुछ भी पॉलिसी
डिसीजन, या यूनियन मैटर आए तो मेरे पास रेफर कर दो। मि.मिश्रा का यूनियन वालों के साथ अच्छा संबंध है। ध्रुव
खटुआ नामक शराबी यूनियन के जिस सेक्रेटरी को देशमुख कभी देखना नहीं चाहेगा, उसके साथ मि.मिश्रा
की गहरी दोस्ती है। देशमुख को कितनी अवज्ञा से देखता है ध्रुव खटुआ। देशमुख को भी
आश्चर्य होने लगता है कि यह महा शराबी टाऊटर खटुआ को कैसे मि.मिश्रा लिफ्ट दे रेहे हैं। बहुत दूर तक सांस्कृतिक
अधोपतन के घटे बिना ऐसे लोगों को सहन कर पाना क्या संभव है? देशमुख
तो कभी ऐसा नहीं कर पाएगा।
जी.एम.
मिरचलानि ने एक बार देशमुख को कहा था, आप पॉलिटिक्स कर रहे हो मि.देशमुख। हमारे भारत देश
में सभी वकीलों तथा एग्जिक्यूटिव लोगों को अपनी नौकरी बचाने के पॉलिटिक्स करनी
पड़ती है। यह पार्टी पॉलिटिक्स नहीं है, वरन अपनी कुर्सी के लिए पॉलिटिक्स है। मि.मिश्रा के
ऊपर मिरचलानि की अच्छी धारणा नहीं है. दोनों के भीतर का मनोमालिन्य बाहर से पता
नहीं चलता है। मिरचलानि साहब ने एक बार देशमुख से कहा था- मि.मिश्रा का एकाधिपत्य
आप मान क्यों ले रहे हो? अपनी निज क्षमता, निज
परिसर के अंदर है। ये सारे बातें मि.मिश्रा को जाहिर क्यों कर देते हो? अपनी
क्षमता परिसर के अन्तर्गत आने वाले विषयों के लाभ हानि के लिए आप ही उत्तरदायी
होंगे। तब, मि.मिश्रा
का हस्तक्षेप मानते क्यों हो? वरन आप यूनियन वालों को पकड़ो। उनके साथ अच्छे संबंध
रखने से आपको ही लाभ होगा। मि.मिश्रा के विरोध में उनको भड़काओ। देखोगे, मि.मिश्रा
कैसे आपका दरवाजा खटखटाएगा?
माँ
को क्या पता था, स्वतन्त्र
भारत की राष्ट्रीयकृत संस्था के एक ऑफिसर को किस हद तक नीचे गिरना पड़ता है। ऑफिसर
की राजपोशाक के नीचे कितना भयार्त, आतंकित और निःस्व मनुष्य है वह। हर पल अपनी स्थिति खो
जाने के डर से आक्रांत। मां के इतने दिनों के ख्वाब सब व्यर्थ थे।
देशमुख
को अपनी मां की बात बहुत याद आने लगी। नौकरी वाली जगह बुलाने पर भी मां नहीं आती
थी। शायद अनीता को ठीक तरीके से पसंद नहीं कर पा रही थी।
अनीता के
स्वेच्छाचारी मन को मां ग्रहण नहीं कर पाई? देशमुख सोच रहा था, ऐसी बात नहीं थी। देशमुख को खूबप्यार करती थी मां। बेटे के सिवाय जीवन में
किसी की चिंता नहीं की थी उसने। अपने बेटे की जिंदगी बनाने के लिए उसने अपना सारा
जीवन तिलतिल कर खर्च कर दिया था। उसके बेटे अगर कोई अपना अधिकार जताए, और कोई अपने बेटे के प्यार में हिस्सेदार बने, बेटा किसी और के ऊपर न्यौछावर
हो जाए- इस कटु सत्य को मां सहन नहीं कर पा रही थी। इसलिए अनीता के ऊपर मां का
गुस्सा बना रहता था और देशमुख की शादी के बाद माँ ने अपने आप को दूर कर लिया था
देशमुख से। सीमाबद्ध कर लिया था उसने जालना शहर के 10 फुट बाइ 6 फुट वाले छोटे
अंधेरे कमरे के भीतर खुद को। देशमुख को बहुत दिन बीत गए थे माँ के पास गए हुए।
पहले माँ के पास कुछ पैसे भेजा करता था। कब उसने वे पैसे भेजना बंद कर लिया, देशमुख को भी ध्यान नहीं था। बिना किसी प्रतिवाद के उसने देशमुख के ऊपर से
अपने सारे अधिकार प्रत्याहार कर लिए थे। क्या अपमान वश ! देशमुख के लिए उचित होता, जोर-जबरदस्ती कर माँ के पास दौड़ जाता। छोटी उम्र में मां की नाराजगी, विरक्ति और डांट-फटकार की ओर ध्यान नहीं दिया था देशमुख ने। हर समय माँ की गोद
को ही अपना आश्रय बनाया था। जबकि अब देशमुख ने अनुभव किया, आजकल मां के गोद
की आवश्यकता को उसने खो दिया है। याद आते ही उसका मन खराब हो गया। “क्या कर रही होगी
माँ, इस वक्त। क्या कर रही होगी ?”
देशमुख बाहर आ गया अपने चैंबर से। ऑफिस के बरामदे में घूम रहे क्लर्क, दरबान, पियोन और वर्कर लोगों ने उसका बिलकुल भी सम्मान नहीं किया। प्रोजेक्ट ऑफिसर की
गाड़ी खडी रखी हुई थी। पियोन व्यस्तता दिखाते हुए मि. मिश्रा के चेंबर के भीतर
घुसता और बाहर निकलता। मि. मिश्रा के जासूस चारों तरफ नजर रखे हुए थे। सोचते ही
देशमुख का मन और दुखी हो गया। वह नौकरी छोड़ देगा। वह निश्चय ही नौकरी छोड़ देगा। वह
फिर लौट जाएगा जालना की ओर। वह शुरू करेगा फिर एक नया जीवन। वह लौट जाएगा अपनी मां
की गोद में। वह अवश्य ही नौकरी छोड़ देगा।
लौट आया घर देशमुख. गेट खोलकर भीतर बरामदे में आकर वह खड़ा हो गया। अनीता ने
बहुत ही सुंदर तरीके से घर सजा रखा था। बगीचे में फूल के पौधे, गमलों में भी फूल के पौधे। बरामदे के एक कोने में मनी-प्लांट, कैक्टस। बेत से बुने से चेयर-टेबल, छत से टंगे गमले
में गुलाब के फूल। अनीता रुचि संपन्न स्त्री थी। देशमुख अब तक समझ नहीं पाया था
अनीता को। बहुत ही खुले विचारों वाली थी वह। फिर भी कहीं न कहीं उसमें घमंड था।
देशमुख की मर्यादा रखने के लिए, भले ही, अनीता ने कभी भी मां के प्रति खराब व्यवहार नहीं किया था। कभी भी अपशब्द नहीं
निकले थे अनीता के मुंह से माँ के लिए, किसी भी प्रकार का
अभियोग या अनुयोग भी नहीं। फिर भी, पिता नहीं कैसे एक
शिथिलता सी थी उसकी मां के साथ व्यवहार में।
किवाड़ खोलते हुए अनीता ने आश्चर्य पूर्वक कहा, आप ! अनीता खुब
सजी-धजी थी आज कहीं जाना है क्या उसे ?कोई इंगेजमेंट ? देशमुख तो प्राय
इस समय घर नहीं लौटते थे। वह चाहती भी नहीं थी कि देशमुख उसे गाइड करें। अनीता एक
खुले विचारों वाली महिला थी। देशमुख का भी स्वामित्व दिखाने की कोई इच्छा नहीं थी।
मि. मिश्रा के साथ उसके टेंशन की मुख्य ज़ड़ है अनीता। मिसेस मिश्रा से आगे जाने की
एक अबाध इच्छा थी अनीता के भीतर। देशमुख ने कभी भी अनीता को बाध्य नहीं किया मिसेस
मिश्रा के सामने घुटने टेकने के लिए। अनीता कहने लगी, “मिसेस जी.एम. के
साथ एक इंगेजमेंट है। हमने स्पेशियल एक्टिविटिज बढ़ाने का फैसला किया है, रोटरी क्लब के माध्यम से। एक प्रौढ़-शिक्षा का कार्यक्रम करने की सोच रहे हैं
लेबर लोगों की कॉलोनी में। आज इस विषय पर फाइनल डिसीजन होना है।”
देशमुख सिमटकर बैठ गया सोफा के ऊपर। उसका घर इतना टिपटाप, ऐश्वर्यशाली, अनीता के बॉयकट बाल। गर्व मिश्रित आभिजात्य- इन सबके लिए
कितनी कीमत चुकानी पड़ी है देशमुख को। उसकी मां ने कितने सपने देखे थे, कितनी साधना की थी,कितना खर्च किया
था, उसकी विफलता की चरम सीमा थी देशमुख, जबकि अनीता सुख
भोगने वाली ऑफिसर की गृहिणी का सौन्दर्य। देशमुख को याद आ गया जालना में उसके
पैतृक घर का दस फुट बाय छ फुट वाला अंधेरा कमरा। मन में याद हो आया हाथ से बुनी
नील लगी साड़ी को धोती की तरह पहने हुए उसकी मां का चेहरा। वह अस्पष्ट शब्दों में
कहने लगा- मैं नौकरी छोड़ दूंगा, अनीता। मैं लौट
जाऊंगा जालना को।
अनीता आश्चर्यचकित हो गई। सोफे पर बैठ गई वह। देशमुख के सिर पर हाथ फेरते हुए
कहने लगी- “क्या हो गया यह
आपको ? ऑफिस में बहुत
टेनशन है क्या ?”
देशमुख को अपनी छाती से लगा दिया अनीता ने। अनीता के शरीर से विदेशी इत्र की
महक आ रही थी। देशमुख को याद आने लगा,अपने पिताजी की
शुद्धिक्रिया का दृश्य। आंगन में माँ को घेरकर बैठे हुए हैं दादी, काका लोग, पुरोहित और नाई।
अनीता ने देशमुख का चुंबन लिया। मां खड़ी है खंभे की आड़ में। खुले बाल। आंसुओं से लबालब भरी आंखें। देशमुख ने अनीता को गले लगा लिया। “मेरा मेकअप खराब
हो जाएगा। मेरी साड़ी की क्रिज साडी की क्रिज... सुनो जी।”
देशमुख ने बहुत ही धीमी आवाज में पुकारा, “माँ, माँ।”
अतीत के कोहरे में चला गया था देशमुख। आधी रात को जालना के उस छोटे कमरे में
मसीने के ऊपर सोते समय कई रातों तक कम उम्र के देशमुख के सिर पर सुनाई पड़ रही थी
दीर्घ श्वास की गरम पवन।
अचानक घंटी की
आवाज सुनकर दूर हो गई अनीता। अपनी साड़ी सभालते हुए आइने के पास चली गई अनीता और
नौकर को तेज आवाज में बुलाने लगी- जाकर देखो, बाहर किसने घंटी
बजाई है? देशमुख ड्रेसिंग टेबल के आइने में चेहरा देखती अनीता के पीछे-पीछे चला गया।
अनीता की आँखों में दुष्ट हँसी। बहुत दिन बीत गए, उनका और इस तरह का
कोई संबंध नहीं था। मगर आज ऐसा होना क्या उचित था? देशमुख का मन ठीक
नहीं था। वह नौकरी छोड़ देने की सोच रहा था ? उसे अपनी माँ की याद आने लगी ती। अनीता के प्रति उसका अनुराग अथवा आसक्ति भी
कुछ नहीं थी। फिर भी आश्चर्य।
नौकर ने आकर कहा- “हरिशंकर पटनायक आए हैं।”
“हरिशंकर कौन ?” अनीता ने आश्चर्य
से पूछा, “ऐसा तो कोई आदमी आपके पास नहीं आता है?”
“एक रिटायर्ड ट्रेड यूनियनिस्ट।शायद जी.एम. कांपलेक्स में क्लर्क का काम करता
है वह। उसके बाद देशमुख ने नौकर को निर्देश दिए- “उनको ड्राइंग रुम
में बिठाओ। दो कप चाय लेकर आओ।” देशमुख ने आइने
में अपने चेहरे को देखा। चेहरे पर चालीस वर्ष से अधिक वार्धक्य की छाप दिखाई दे
रही थी। अनीता जल्दी-जल्दी अपना मेकअप ठीक कर रही थी। उसे काफी देर हो गई थी।
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